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75 मया पाचितमलं च यावनाञ्चक्षुकुलोद्भवम् । यथेष्टं भुङ्क्ष्व मद्दत्तं सहामोदरसादरम् ।। २२९ ।। तमालिनी बोली-है नषोंके नाथ ! हे गोविन्द ! मेरी बुद्धि आप ही में है; न तो मैं मंत्रीदे मागको जानती हूँ और न कनकी निर्णय इी जानती हूँ । अछूत कुलमें उत्पन्न हुएको कहाँ वेद और कहाँ तप है । मेरी भक्ति एवं विशेषकर मेरे पति की भक्ति से प्रसन्न होकर मेरे पकाये हुए जब एवं मेरे दिये हुए क्षमलनाल के अन्नको चिसना चाहिये उतना भर पेट आदरपूर्वक भोजन कीजिये । २ ९) भगवत्कृत भीमाख्यभक्लेोपचाभ्युपगमः इत्थमुक्तो जगद्योनिस्तया भक्त्या तमालया । कमलामुखमालोक्य जहास जगदीश्वरः ।। २३० !! सुप्रसन्नोऽथ भगवांस्तामुवाच तमालिनीम् । अवश्यमल भोज्यं ते भक्त्या दत्तं तभालिनि । इत्येवमुक्त्वा भगवान् भक्तवत्सुल्यवारिधिः ।। २३१ ।। रमासमेतो रमणीयविग्रहः अभुङ्क्त दत्तं च तदन्नमुत्तमं भुक्त्वा तयोश्च प्रददौ पदं स्वकम् ।। २३२ ॥ भगवानका भीम नामक कुलालकी भक्तिके उपचारोंको ग्रहण करना संसार की उत्पत्ति के कारण भगवान श्रीनिवास उस भक्त तमालिनी से इस प्रकार कहे जाने पर जंक्ष्मी के मुख की ओर देखकर हँसे ! पश्चात अत्यन्त प्रसन् होकर उस तमालिनी से भगवान बोले-हे त्यालिनी 1 अक्ति से दिये गये तुम्क्षारे अन्न को अवश्थ में भोजन करूंशा । इतना कहकर अतवान्खलता के समुद्र तथा सुन्दरमूर्ति श्रीनिवास ने कुलाल और उसकी स्त्रीसे दिये गये उस उत्तम् अन्नको लक्ष्मी के साथ भोजन किया और उन दोनों को अपना धाम दिया । (२३२)