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वेङ्कटाद्रौ पररां भक्तिं वहन्गच्छति चेद्गिरिम् ।। ३० ।। पङगुर्जङ्काल एवस्यादचक्षुः पद्मलोचनः । मूको वाचस्पतिर्दूरश्रावी तु बधिरो भवेत् ।। ३१ ।। वन्ध्या तु बहुपुत्रा च निर्धनः सधनो भवेत् । एतत्सव गिरौ भक्तिमात्रेणैव भवेद्भवम् ।। ३२ ।। तत्त्वतो वेङ्कटाद्रेस्तु स्वरूपं वेत्ति कः पुमान्? । श्रीनिवास गिरिश्चायं कदाचित्कनकाचलः ।। ३३ ।। कदाचिज्ज्ञानरूपोऽयं कदाचिद्रत्नरूपक । श्रीनिवास इवाऽभाति कदाचिद्भूषणोज्ज्वलः ।। ३४ ।। कालभेदेन केषाञ्चित्प्राकृताचलरूपध तस्मादस्य गिरेः पुण्यं माहात्म्यं वेत्ति कः पुमान् ? ।। ३५ ।। शृतेषु किञ्चिद्दृष्टेषु मयोक्त भवतामिदम् । शृतेश्च सर्ववृत्तान्तः शक्यो वक्तुं मया न हि ।। ३६ ।। इस वेंकटाद्रि पर ओ परा भक्ति से तीर्थयात्रा करता है, वह यदि पंगु ही तो बलिष्ट पैरवाला हो जाता है, अन्धा कमलाक्ष हो जाता है , गूगा बृहस्पति ने समान वाचाल और बहिरा बहुत दूर के भी बात सुनने योग्य, वन्ध्या बहुपुत्रवती, निर्धन धनवान हो जाता है। यह सब कुछ इस वेंकठाचल में भक्ति रखने के प्रभाव से हो जाता है। इस वेंकटाचल पर्वत को पूर्णरूप तथा तत्वतः कौन जान सकता है? श्रीनिवास पर्बत कभी तो कनकाचल, कभी ज्ञानरूप, कभी रत्नरूप कभी स्वयं श्रीनिवास ही के समान आभूषणों से उज्वल भालूम होता है। पुनः यही किसीको काल भेद से प्राकृताचल रूपधारी दीखता है। अत: इस पर्वत का पुण्य व माहात्म्य कौन पुरुष जान सकता है? मैं ने भी अपने देखने एवं सुनने में से थोड़ा ही कहा है; क्योंकि जितना वृत्तांत मैं ने सुना है वह सब मैं कहे ही नहीं सकता । इति श्रीवराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्ये कापिलादि सप्तदश तीर्थमाहात्म्यादिवर्णनं नाम चत्वारिंशोऽध्यायोत्राष्टमः ।