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756 श्री वेङ्कटेशके परापर भाका निरूपण श्री सूजी बोले-हे शौनरु इत्यादि तपोधन मुनिगण) ! टस विरुणु श्री वेङ्कटेशके १ हृस्य की श्रेष्ठ महताको सुन्नये । हे द्धिजोत्तम ! पृथ्वीमें जितने तीर्थ एवं जितने स्वयं प्रगट पुराने क्षेत्र, पत्रि वन और पर्वत है। सो सत्र और सब सामान्य एवं मुख्य पुराणोंको आपने सुना है; और अन्त में श्रीवैकुण्ठ पदका सयुज्य और उत्तम आनन्दछो देनेवाल, अठारह पुराणोंका मुख्य और उत्तम सार रहस्यको बार-बार प्रश्न् एवं सेवः दुबारा व्यासजीको प्रसन्नता और करुणासे मैं ने सुना है । (५) भविष्योत्तरसारांशः सर्ववेदान्तसङ्ग्रहः !। ५ ।। तत्रापि चोत्तरे खण्डे साक्षात्संसारमोचकः । उमामहेशसंवादे रहस्यानुभवो द्विजाः ।। ६ ।। अथान्दनिलयस्यैव क्षेत्रमाहात्म्यमुत्तमम् । मन्त्राणां मन्त्ररत्ने द्वे द्विविध ध्यानमुत्तमम् ।। ७ ।। श्रृणुध्वं परमानन्दपदावाप्त्य च दुलभम् । देवानामपि सिद्धानां महतां योगिनां नृणाम् ।। ८ ।। हे ब्राह्मणो ! उसमें भी उत्तर खtडले पार्वती और शिवके संवादमें साक्षात संसारसे मुक्त करनेयाजा रहस्यका महादभ्य और भविऽधोत्तरका सारांश सव वेदान्तोंका संग्रह है { परमानन्द-पद पाने के लिए साक्षात आनन्दशामके उत्तन क्षेत्रके माहात्म्य, मन्त्रोंमें दोस्त, एवं देवताओं, बड़े सिद्धों या बड़े योगी जनोंको श्री दुर्लभ दो प्रकार के उत्तम ध्यानको सुनौ । अचिकित्स्यग्रहग्रस्तविकलाङ्गविरूपिणाम् । रोगिणामचिकित्स्थानां दुष्कर्मपरिपाकिनाम् ।। ९ ।। आपद्भिरनिवार्याभिरावृतानो च दुःखिनाम् । महापातकसम्भूतकुष्ठरोगकुरूपिणाम् ।। १० ।।