पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/७७५

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

757 काणान्धबधिराणां च मूकानो पङ्गुकुब्जयोः । प्रायश्चित्तविहीनानां पापिनां दुःखदुःखिनाम् ।। ११ ।। क्वाप्यनिर्गतिकानां च सर्वदा क्रूरकर्मणाम् । भवेत्प्रतिविधिः सद्यः प्रत्यक्षो वेङ्कटाचलात् ।। १२ ।। भक्तानां भवतप्तानां गतिश्चान्यत्र नास्ति भोः । स परः सर्वलोकानां सर्वव्याधीन् कृपानिधिः ।। १३ ।। निकृन्तन्नस्ति चक्रेण यत्र तस्माद्धि वेङ्कटात् । तस्मात्स एव गन्तव्यो भोगमोक्षरतैर्जनै ।। १४ ।। विशेषतः क्रूरकलौ त्राणां पापाकराणां परिपीडितानाम् । भूगोलमध्ये द्रविडे च पुण्ये श्रीवेङ्कटाद्भिर्गतिरेव तान्या ।। १५ ।। कलौ युगे मनुष्याणां सङ्कीर्णानां च रक्षिता । श्रीवेङ्कटशान्नान्योऽस्ति सर्वादिष्टनिवारणात् ।। १६ ।। जिसकी चिकित्सा न की जा सके ऐसे ग्रहछे ग्रश्तजनों विकलांग और कुरूपो, असाध्य रोगियों, अपने बुरे कामोंके फल पानेवालों, डी न रोकी जा सकें इस प्रकारकी आपत्तियों से घिरे हुए दुखियों, बड़े-बड़े पापी द्वारा कुष्ठ रोगसे कुरूप हुए मनुष्यों, कानों, अन्धों, बद्दरों, दूंगों, लूलों, कूबड़ों, प्रायश्चित नहीं कर सकनेवाले पापियों, दुखसे दुःखियों, अशरणों तथा सदा क्रूर कर्म करनेवालोंका भी शीघ्र और प्रत्यक्ष प्रतीकार उस श्रीवेङ्कटाचलसे होगा, जिसके अतिरिक्त संसार से सपे हुए भक्तोंकी गति दूसरी जगह नहीं है और चकि वह दयालु भगवान सब लोकॉकी सब व्याधियोंको चक्रसे काटते रहते हैं; इसलिए वहाँपर मोग और मोक्षमें लगे हुए मनुष्योंको जाना चाहिये। विशेष करके इस कठिन् कलियुगमें पापी और दुःखी मनुष्योंकी गति इस भूमण्डलमरमें पविद्ध द्रविड़ देशस्थित श्रवेङ्कटाचल ही है; दूसरा नहीं । कलियुग में कष्टोंके निवारण करनेवाले श्रीवेङकटेशके अतिरिक्स नाना प्रकारके मनुष्योंकी रक्षा करनेवाला दूसरा और नहीं है । (१६)