पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/७७९

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स्वामिपुष्करिणीतीर्थ भक्तिज्ञानसुखप्रदम् ।। ३५ ।। दर्शनात्सर्वजन्तूनाभाश्चर्य भुवि राजते । आजम्भसञ्चितं पापं दर्शनादेव शश्यति ।। ३६ ।। परानन्दपदे स्थित्वा मोदन्ते वेङ्कटाचले ।। ३७ ।। स्रान्पानस्पर्शनैस्तु किमु वक्तव्यमीश्वरि । स्वाभिपुष्करिणीतीर्थमहिमा केन वण्र्यते ।। ३८ ।। अथा वक्तुं विरिञ्चाचैर्न शक्यो लोकदुर्लभः । किं पुनः सिद्धयोगीन्द्वै: ससुरासुरमानवैः ।। ३९ ।। श्रीशिवजी बोले-हे देवि ! तुमने भक्तों के हितकी इच्छाले अच्छा पूछा । अपने प्रिय उस राइस्यको मैं तुमसे कहता हूँ ! ब्रह्माण्इ मण्डल में पवित्र द्रविड़ सब जीवोंको पति शान और सुङको देनेश्लं, पृथ्वीवर आश्चर्य श्रीस्वामिपुष्करिणी नामक तीर्थ शोभित है । जन्म रमें एकति सौ पाप उसके दर्शनहीसे नष्ट होते तथा उसी क्षण ज्ञानसे युक्त होकर भनुष्य संसारके बन्धनोंसे छूट जाते और परम आनन्दके पदपर स्थित हो श्री वेङकटांबद्दलषर अत्न्द्द करते हैं । हे ईश्वरि ! स्नान, पान और स्पर्श की तो बात ही क्या कहना है ! स्वापुिष्करिणी तीर्थकी महिमा कौन वर्णन कर सकता है? यह लोकदुर्ल मुझसे वा ब्रह्मा इत्यादिसे भी नहीं कहा जा सकता है, फिर सिट्व, योगीन्द्र देवता, राक्षस और मनुष्योंकी बात (३९) सार्धत्रिकोटितीर्थानां पातक्रश्त्री सुपावनी । वेङ्कटेश्वरसद्धाम्नः समन्ताद्योजनत्रयम् ।। ४० ।। भुक्तिभूभिश्चिदात्म्दघनसन्दोहमण्डलम् । तत्र स्थितानां जन्तूनो भापयं भाग्यमहो नृणाम् ।। ४१ ।। यद्दर्शनं सहाह्नादि सच्चिदानन्दसम्भृतम् । अहो चिन्नमहो चित्रमस्मिन्त्रैकुण्ठभण्डले ।। ४२ ।।