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765 अचिन्त्यं तेजसा व्याप्तमप्रमेयमगोचरम् । छादितं मायया विष्णोज्र्वलितं सर्वतोमुखम् ।। ६७ ।। ज्ञानमय एवं पविद्र यादि करह क्षेत्रले, शुद्ध अन्त. करणवालोंसे स्तुत, साढ़े तीन करोड़ तीथोंसे विरे हुए, पवित वृक्षोंछे सुन्दर पुष्पोंसे सुगन्धित 1त्नों मण्डलोंवाले, पारिजातके सन शौर उद्यालसे शभित, अनेकों वृक्ष और लताओंके आराम और फूलक्षारियोंसे शोति, झरम, दिध्य पक्षी और मृगोंके शब्दसे भरे हुए, सब देवता, सिद्ध ओर योगीके समूहसे सेवित, सुन्दर, भनोहर, आनन्दरूप, अहोत्सवरूी भक्तिले सःर, वैकुण्ठस्वरूप उब बाध:ऑसे वर्जित विरजा नदीके किनारेके समान, नद रत्नोंसे जटित जर स्तम्भवले गण्डपयुक्त, सोनासे पूर्ण, रत्नोंके प्रकारकी प्रभासे भरे हुए, रत्नों की प्रभासे शोभते हुए एवं सोनेकी विचित्रतासे अनेकों प्रकार से उज्वः स्वर्णपुष्करिणी तीरपर चारों दिशाओं में चारों प्रकार की मुक्ति रूी फलको देनेवाले चार धाम (गृह) है, जो अनेकौं सूर्ये विद्युत {{बिजली) एवं चन्द्रके मण्डल से ऊँचे मृण्डलवले. दुनिरीक्ष्य, कठिनलासे भी नहीं आक्रमण किये जाले यो२८, देवताओं के स्रों को श्री असह्य, नहीं चिन्ता करते योग्य, तेजटे भरे हुए, ज्ञेय, इन्द्रियोंसे नहीं जानने योग्य शौर विष्णुकी मायासे के हुए (६७) मध्ये तुरीयब्रह्माख्यं स्वप्रकाशं तदेव सत् । स्वशक्तिगुणवैचित्र्याद्विसृजद्विश्धमव्ययम्।। ६८ ।। उपादानं निभित्तं च कारणं जगतः सतः । उनके मध्य में जो तुरीय (चतुर्थ) ब्रह्मा नाभक स्वयं प्रकाशमान वस्तु है, यही रात अपनी शक्तिशे गुणोंकी विचित्र6ासे सारे संसारको उत्पन्न करने वाला, उखण्ड एवं संसारका उपादान और निमित्त कारण है । (६९) ऊर्णनाभेस्तन्तुनेव विहारस्तस्य मायया ।। ६९ ।। मूलप्रकृतिसङ्गात्तत्कार्यत्वेनापि सङ्गतम् । तत्तद्वारा बहिव्यक्ततं ततस्तत् त्रिविधं कृतम् ।। ७० ।। तत्तत्कर्मानुगुण्येन भाति स्थूलं महत्कृशम् । विषयग्रहणे पूर्वं दृश्यते हि तदेव सत् ।। ७१ ।। उसका विार मकड़ीके जाले समान मायाके साथ है ! मूल प्रकृतिके संगसे उसके कार्य में भी मिला हुआ वह उसी उसीके द्वारा बहर प्रगठ है