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76 इसलिये वह तीन प्रझारञ्जा बना हुआ है ! यथर्वात उन्हीं उन्हीं कमोंके अनुकूल गुणोंसे वह स्थूल, पहत और सूक्ष्म झालू पड़ता है ? विषय ग्रहण के पूर्व में यहीं सत् दिखलायी पड़ता हैं । (७१) विदुषामहमुल्लेखपर भशबिभासकम् । तदुपाधिभिरच्छिन्न महत्स्थूलं तथा कृशम् ।। ७२ ।। स्थूलसूक्ष्मच्छिद्रघटाद्यथोद्भच्छति दीपभा: ! तथैव ब्रह्मणस्तेजो भाति भिन्नमुपाधिभिः ! ७३ ।। उपाधित्रयमेतत्तु च्छित्त्वा भक्तिमतां नृणाम् । एकमेवाद्वितीयं तत् त्रिशून्यं भाति नृम्भितम् ।। ७४ ।। भेधच्छिद्राणि सञ्छिद्य भानुतेज इवोत्थितम् । नानात्वकल्पनायुक्त विश्धप्रकृतिवजितम् ।। ७५ ।। नेति तिीति च धृत्था डोधितं यत्परं पदम् । परिच्छेतुभशश्यत्वात्स्वप्रंशं तदेव सत् ।! ७६ ।। धही विद्वानोंके “अहं "ऐसे ज्ञानका प्रकाशक, उराधियोंसे नहीं ठका हुआ , अहंमावरति मद्दत स्थूल और सूक्ष्म लूिन पड़ता है ! जिस प्रकार घड़ेमें रखे हुए दीप झा प्रकाश स्थूल और सूक्ष्म छिद्रों से स्थूल और सूक्ष्न होकर बाहर आता है उसी प्रकार ब्रह्मका तेज भी मिन्न भिन्न उपाधियों द्वारा देख पड़ता है । भक्तिमान मनुष्यों की इन तीनों उपाधियोंकेि परे, तीनों गुणोंसे शून्य वही एल, अद्वितीष तथा शून्य ऐसः भालू १ड़ता है । सब तरह की प्रकृतिसे रहित बह मेघसे छिद्रोंके सङ्ग उगे हुए सूर्य के ते ठे जैसा नानात्व (झनेकदव, एकसे बहुत) की शल्पनासे गुक्त होता है, जो परम पद शकेि “ यही है ” ऐसा निश्चयपूर्वक कहनेमें मर्थ न हो सकनेशे कारण “नेति चेति--यह नहीं, यह नहीं ऐसा कहा गया है और जो स्वयं प्रकाश एवं द्र है : (७६) सत्यं ज्ञानमनाद्यन्तमानन्दममृतोत्थितम् । नित्यशुद्धप्रबुद्धात्मस्वरूपं वागोचरम् !! ७७ ।। सर्वतो व्याप्तमात्मानं निर्मलं निष्कलं शिवम । शून्याशून्यफलं हित्वा प्रज्ञानं ब्रह्म वृम्भितम् ।। ७८ ।।