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787 भावाभावविनिर्मुक्तं द्वैताद्वैतविश्वजितम् । सच्चिदानन्सान्द्राब्धिपरिपूर्णमनामयम् ।। ७९ ।। सत्यचिद्धनसूक्ष्मायमखण्डअकुतोभयम् । जो अदि और अन्तसे रहित, शानन्दरूपी, अमृतका कारण, aत्र, शान, नित्य शुद्ध, बुद्ध, आमस्वरूप, चमसे नहीं जान्ने योग्य, सदन याप्त, निर्मल निविकार, शुम, शून्य और अशून्य फको छोड़ कर सर्वव्यापं , विज्ञ:म, ब्रह्मख्प, भाव और अमावशे मुक्त, द्वै और अद्वैत से रहित, क्षत्-चित्-आनन्द घन समुद्र से परिपूर्ण, निर्गुण, सत्य और वित् घन, सूक्ष्म से सूक्ष्म, निर्भय, कैवल्य और सायुज्यके (८०) निर्गुणं चेन्द्रियातीतं निराकारं निरञ्जनम् । स्वभक्तदर्शनाथाय लोकानां रक्षणाय च ।। ८१ ।। कृपया सर्वदेवानां सिद्धानो योगिनां हितम् । कालप्रवाहंगम्भीरम्यावर्तभवाम्बुधेः ।। ८२ ।। तारणश्य वरं दातुं भक्तिज्ञानपुरस्सरम् । भजतां वाञ्छतां सम्पदायुरारोग्यवर्धनम् ।। ८३ ।। अणिमाद्यष्टसिद्धिं च योगसिद्धिं च सन्दिशत् । अष्टाङ्गयुक्तां सद्विद्यासिद्धिं च विजथान्विताम् ।। ८४ ।। मन्वयन्तमहातन्त्रदेवतासिद्धिकारणम् । स्वांशावतारमूर्तीनां सर्वशक्तिफलप्रदम् ।। ८५ ।। निकालयोग्यम्रक्षार्थं स्वप्रसिध्द्यर्थकारणम् । स्वीकुर्वत्स्वगुणं ब्रह्म भूतिमत्तदनामयम् !। ८६ ।। जो निर्गुण, इन्द्रियों से परे, निराकार, निरंजन, कृपासे अश्वे भक्तोंके दर्शन देने और लोकोंकी रक्षा करने में तथा सच देवताओं, सिद्धों और योगियों के लिये हितस्वख्प, कालरूपी गम्भीर प्रवाहृवाले संडारूपी सागरके माथारूपी भंवरको तरचे, तधा भक्ति और ज्ञानके साध हिंत वर पादेके लिये भजन करने वालों की संपत्ति, आयु जोर आरोग्यको बढ़ानेवाला, अणिमादि अष्ट ििद्धयों, योग सिद्धियों