पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/८१

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क्योंकि आपकी यह वानरों की सेना थकी हुई है। तपस्वी, पुष्प तथा फलों से भरे हुए अनन्त झरने अनेक कंदरे और शिखरीरों से शोभित तथा स्वादिष्ट कंद मूल से परिपूर्ण अञ्जनाद्रि नाम का यह पर्वत हम लोगों के मार्ग में ही है। इसके अनन्त गिरिगुहा के वृक्षों में बहुत मधु है, हे महाबाहो, आप यह सब जानते हैं, अब जैसी इच्छा हो वैसी करें। (१३-१८) ३९यु६९त । वायुपुत्रेण श्रीरामः प्रहसन्नसौ । जानेऽहमज्जनासूनो ! तथापि वचनं तव ।। १९ ।। श्रोतव्यं हि महाबाहो ! गच्छाग्रे त्वं हरीश्वर' । इत्युक्त्वा वाहिनीं तां च कर्षन्पर्वतमाययौ ।। २० ।। नागकेसरमालूरपुन्नागतरुशोभितम् । चम्पकाशोकबकुलचूतकिंशुकराजितम् ।। २१ ।। मयूरशारिकालापैः कोकिलानां स्वनैरपि । शुकमञ्जुल नादैश्च कपौतस्वनहुँकृतैः ।। २२ ।। शोभितं फलपुष्पैश्च बेङ्कटाख्यं नगोत्तमम् । सब सुन श्रीरामचन्द्रजी बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि हे अञ्जनासुत हनुमान ! यद्यपि मैं यह सब जानता हूँ तथापि, तुम्हारी बात भी सुनना ही चाहिये ; अतः हे वानरेन्द्र तुम आगे चलो । यह कहकर श्रीरामचन्द्र सम्पूर्ण सेना को साथ लेते हुए पर्वत पर चले ! जो पर्वत नाग केसर, मालूर, पुन्नाग आदि वृक्षों से शोभित, चम्पा अशोक, बकुल, आम पूलाश से शोभित ; मोर, मैना, कोयल आदि पक्षियों के सुमधुर शब्दों से शब्दायमान, सुग्गे तथा कबूतर के मधुर स्वर से कलरवित ; फल फूलों से शोभित, वेंकटाचल के नाम से सुप्रसिद्ध है । (१९-२२) निलमा नामतः कश्चिद्विप्रो वेदविदां वरः ।। २३ ।। स्वयम्भुवं समुद्दिश्य ब्रह्मलोकजिगीषया । तपश्चकार धर्मात्मा पर्वतोत्तरदेशतः ।। २४ ।।