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64 वेद विद्यापारंगत, परम धर्मात्मा, निलोंमा नामक कोई ब्राह्मण, ब्रह्मलोक पाने की इच्छा से ब्रह्माजी को उद्देशकर पर्वत के उत्तर भाग से आकर तपस्या करने लगा । (२३-२४) आगत्य भगवान् ब्रह्मा तमाह द्विजसत्तमम् । 'राभं दृष्ट्वा ससौमित्रिं ब्रह्मलोकमवाप्स्यसि'। इत्युक्ते ब्रह्मणा पूर्वं दृष्ट्वा रामं परात्परम् ।। २५ ।। फलमूलाशनैः सम्यक्पूजयित्वा तमब्रवीत् । 'अद्य मे सफलं जन्म त्वन्मुखाम्भोजदर्शनात् ।। २६ ।। चिरकालाजितं स्वामिन्फलितं तप उत्तमम् । अनुज्ञापय मां राम ब्रह्मलोकं प्रतीश्वर ' ।। २७ ।। इत्युक्तः स तु धर्मात्मा 'तथैवाचर भो द्विज !' । तब ब्रह्माजी न आकर उसु द्विजश्रेष्ठ को कहा कि हे द्विजश्रेष्ठ ! जब तुमको लक्ष्मणजी के साथ रामचन्द्रजी का शुभ दर्शन होगा, तब तुम्हें ब्रह्म लोक की प्राप्ति होगी। जैसा ब्रह्माजी ने पहले कहा था तदनुसार परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन कर उनको फल, फूल-मूल आदि से सम्यक प्रकार से पूजा करने के पश्चात कहा हे प्रमो ! आज आपके मुखारविन्द के दर्शन से हमारा जीवन सफल हुआ ; चिरकाल से आजित उत्तम तपस्या आज ही फलीभूत हुई, अत एव हे महाप्रभु श्रीरामचन्द्रजी; अब मुझको ब्रह्मलोक को जाने की आज्ञा दीजिये । (२५-२८) इत्युक्त्वा तं तु विप्रेन्द्रमारुरोह नगोत्तमम् ।। २८ ।। शापमोक्ष च यक्षाणां केषांचित्पर्वतोत्तमे । दत्वा रामोऽञ्जनादेव्या आश्रमं पुण्यवर्धनम् ।। २९ ।। आकाशगङ्गानिकटे प्रतिपेदे मंहामनाः । तया स पूजितः सम्यक्तस्यै दत्वा वरोत्तमम् ।। ३० ।। आपृच्छय तां महाभागां स्वामिपुष्करिणीं थयौ ।