पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/८३

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उसकी उस प्रार्थना पर 'तवास्तु' कहकर आप उस उत्तम पर्वत पर चढ़ गये और उस पर्वत श्रेष्ठ पर अनेवा यक्षों का शाप मोचलकर अञ्जना देवी के परम पवित्र तथा पुण्यवर्धक आकाश-गंगा के समीपवर्ती आश्रम में चले गये। (२९-३१) तत्र रामो महातेजाः सौमित्रिमरुतात्मज ।। ३१ ।। सुग्रीवश्चाङ्गदश्चेव जांबवान्नील एव च । चक्रुः स्नानं महातीर्थे सर्वत्र विजयप्रदे ।। ३२ ।। फलभूलानि चानीय रामो धर्मभृतां वर । चकार दानं तत्रैव मुनिभिः शास्त्रवत्र्मना ।। ३३ ।। तस्या नैऋतिदिग्भागे कुटीं कृत्वा पृथक्पृथक् । सुस्वादुफलमूलानि मृधूनि सुबहूनि च ।। ३४ । । आनीय वायुपुत्रस्तं पूजयामास राधवम् । वह महाभागा अञ्जना देवी से पूर्णतया सम्पूजित होकर एवं उनकी परम वरदान देकर, उससे अनुभति लेकर वे स्वामिपुष्करणी तीर्थ को चले गये । वहाँ श्रीरामचन्द्र, लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव, अंग, जाम्बवान तथा नील आदि सबों ने उस विजय प्रथ महातीर्थ में स्नान किया एवं फल मूल लाकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ने शास्त्रानुसार मुनियों को दान दिया । तदनन्तर वे नैऋत्य दिशा में अलग-अलग कुटी बनाकर रहने लगे । हनूमानजी सुन्दर मधुर, स्वादिष्ट फल-फूल लाकर श्रीरामचन्द्रजी की पूजा किया. करते थे । (३२-३४) ततो रामः सम्प्रहृष्टः सुग्रीवप्रमुखैःसह ।। ३५ ॥ न्यवसत्समुखं रामः स्वगेह इव तत्र वै । वानराश्च महात्मानो गोलाङ्गला महाबलाः ।। ३६ ।। सर्वतस्तत्र पुष्पाणि मूलानि च फलानि च । मधूनि स्वादुतीर्थानि भक्ष्यजातान्यनेकशः ।।। । ३७