पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/८५

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

87 कीई वानर श्रेष्ठ अन्य वन्दरपर चढ़ता, तो कोई किसी दूसरे वानर की पूंछ को पकड़कर खींचता और कोई किसीके कानों के पास चम्बन करता । वे आपस में कहते कि दर्शनमात्र से ही रावण को सपरिवार मार डालेंगे, लंका को सभूल उखाड देंगे, अथवा समस्त त्रिकूट पर्वत ही को उलट देंगे, और नहीं तो अनन्त नःादि सभाकुलित, समुद्र ही को ले आयेने । एवं बाहुवेग से ही आकाश में उड़कर पन्द्रमा एवं सूर्य की पकड़ लायेंगे । श्री रामचन्द्र के लिए सम्पूर्ण वृक्षों तया सब पर्वतों को खण्ड खण्ड कर डालगे ! पाताल रसातल अथबा महलॉक सभी में प्रवेश करेंगे और उस जगह भी चले जाएँगे, जहाँ मण्ड में भरकर रावण बैठा होगा । उ१ः लोक कंटक को उसके सम्पूर्ण परिवार के साथ मार डालेंगे । रामचन्द्रजी परम धार्मिक होने के कारण उसके शिर काटने में विलम्व करते हैं । (४०-४५) इति वृवन्तस्ते सर्वे वानराः पर्वतोपमाः । तस्मिन्दिव्ये भहापुण्ये वेङ्कटाद्रौ वनेचबरा ।। ४६ ।। ोटिकोटयर्बदास्तत्र परार्थाबलशालिनः । परस्परमसम्बाधं न्यवसन् ससुखं गिरौ । अहो गिरिप्रभावोऽयं वर्णनीयः कथं बुधैः ।। ४७ ।। ऐसे कहते हुए पर्वत में संचार करनेवाले, महाबलशालि पर्वताकार वानर उस दिव्य म्हापुण्य वेंकटाचल पर करोड़ों-करोड़ों के झुण्डों में एक दूसरे से अप्रतिहत तथा परन उदण्ड होकर सुख से दास करने लगे । अहा ! इस पर्वत का प्रभाव बुद्धिमानों से भी किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है । (४६-४७ ) इति श्रीवाराहपुराणे श्री वेङ्कटाचलमाहात्म्ये श्रीवेङ्कटाचलं प्रति श्रीरामागमनांजनाप्रार्थनादिवर्णनं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायोत्र नवमः ।