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73 ज्योति के समान छत्र लगाये, सुन्दर पंखा धारण किये हुए स्त्रियों से सेवित मगवान को देब्रः । वे वानर इनको देखकर अत्यन्त आश्चयन्वित हुए । (१०-१८) अत्रान्तरे महाभागः पुरुषः परमाद्भुतः ।। १९ ।। चतुर्भुजो दण्डहस्तो दृष्ट्वा त्वरितविक्रम : । दण्डमुद्यम्य तान् सर्वान् भत्र्सयाभास वै तदा ।। २० ।। इतने ही में वह अद्भुत चार भुजाबाले परम पराक्रमी पुरुष उनको देखकर त्त्रारा से आक्रमण करते हुए दण्ड उठाकर उन लोगों की भत्र्सना करने लगे । (१९-२०) ते सर्वे वानरा भीता निर्जम्मुर्गिरिगह्वरात् । निर्गत्य सहसा तेभ्यः प्रोचुर्दष्टं यथा तथा ।। २१ । रावणस्तु महामायी कामरूपी च वञ्चकः । अन्यो वा रावणो वाऽथ शोधनीयः प्रयत्नतः' ।। २२ ।। इत्युक्त्वा वानरास्ते च सर्वे सम्भूय सम्भ्रमात् । यत्र पूर्व शुहा दृष्टा तत्रागच्छन्वनौकसः ।। २३ ।। नापश्यन्नगरी तत्र चिह्न वा दृष्टपूर्वकम् । भ्रमात्तमञ्जसा शैलं विचिन्वन्तश्च सर्वतः ।। २४ ।। भ्रम' इत्येव निश्चित्यं तूष्णीमासन्वनौकसः उस समय वे सब वानर परम भयभीत होकर, उस गिरि गहबर से बाहर निकल आये और जो कुछ देखे थे, वह सबसे कहे–“यह भहामायावी कामरूप वञ्चक रावण था अथवा कोई अन्य ? इसकी विशेष रूप से तलाश करनी चाहिए ।' ऐसा कह सब वानर फिर मिलकर उसी पूर्व दृष्ट गुहा में घुस गये, परन्तु वहाँ पर वह नगरी अथवा पछ्ले देखे हुए चिन्ह भी नहीं देखे । भ्रम से उस पर्वत के सभी भागों को खोजकर अपना भ्रम समझकर शान्त हो गमे ।. (२२-२४)