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73 दुज्ञेया सा तु देवैश्च मायया परमात्मनः । लीलया विष्णुना पूर्व वानराणां प्रकाशिता ।। ३१ ।। तब श्री सूतजी बोले-हे मुनियो, आप लोग खुनिये, मैं कहता हूँ । देवमाथा के समान वह वैकुण्ठ नामक गुहा मुनियों एवं देवताओं से भी परमात्मा की मायावश दुर्जेय है। उसे पूर्वकाल में िवष्णु भगवान ने लीलादश वानरों को िदखलाया था । (३०-३१) तस्यां गुहायां ये दृष्टाः शङ्खचक्रधरा अपि । ते तु मुक्तास्तथा नित्याः परमानन्दरूपिणः ।। ३२ ।। भुञ्जते ब्राह्ममानन्दमाविर्भूतगुणाश्च ते । सञ्चरन्तः कामरूपा लोकान् भगवता सह ।। ३३ ।। आनन्दरूपाः कैङ्कर्य कुर्वन्तो ब्रह्मणो हि ते । वसन्ति तत्र सततं ब्रह्मणा परमेष्ठिना ।। ३४ ।। यदा यदा कलिः कालो यदा वा जनता गिरौ। । तदा गुहायां तस्यां तु वसिष्यन्तीति नः श्रुतम् ।। ३५ ।। उस गुहा में जो शङ्ख, चक्र, गदाधारी दिखाई पड़े थे, वे परमानन्द रूप परम मुक्त तथा सदा नित्य पुरुष थे । जो परमात्मा के समान गुणों से आविर्भूत होकर ब्रह्मानन्द भोग करते हैं और कामरूप से भगवान के साथ लोगों में संचरण करते हैं तथा ब्रह्मा की सेवा करते हुए आनन्दरूप होकर परमेष्ठि ब्रह्मा के साथ सदा निवास करते हैं। जब-जब कलियुग आता है, या जब जनसमूह पर्वत के ऊपर आ जाता है तब-तब वे इसी पर्वत गुहा में निवास करते हैं, ऐसा मैं ने सुना है । (३२-३५) एवम्प्रभावः शेषाद्रिर्वसत्यस्मिञ्जगन्मयः । क्रीडते लीलया युक्तो नित्यैर्मुक्तैश्च सूरिभिः ।। ३६ ।। नीलमेघनिभं श्यामं नीलोत्पलविलोचनम् । नीलद्रिशिखरस्थं तं . भजाम्यत्रैव सुस्थितम् ।। ३७ ।।