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77 'क्षीरोदशायिन्! भगवन्! सर्वकारणकारण! । सूक्ष्मप्रकृतिसंलीनजीवतत्वैर्युत ! प्रभो ! ।। १० ।। सृष्टिकाले भवानेव त्वत्तोऽन्यन्न हि विद्यते । स्रष्टा त्वमेव सर्वस्य जङ्गमस्थावरात्मनः ।। ११ । । त्वमेव दृश्यसे विष्णो जगदूप नमोऽस्तु ते । अङ्गीकृत्य भवानेव जगत्पालनकर्म च ।। १२ ।। शेषे शेते श्रिया सार्द्ध निश्चितं मधुसदन ! । जागरूकः सदा त्वं तु जगत्पालनकर्मणि ।। १३ ।। विचारयसि नास्मांस्त्वं किमर्थ मधुसूदन ! । प्रसीद भगवन् विष्णो ! प्रसीद त्वं सुरेश्वर ! ।। १४ ।। प्रसीद करुणासिन्धो ! प्रसीद वरदामल ! । हे क्षीरसागर शायी, हे सब कारणों के भी कारण, हे कारण रूप प्रकृति में, विलीन सूक्ष्म जीवों से युक्त प्रभो, सृष्टि-काल में आप ही रहते हैं, आपके अतिरिक्त और कोई नहीं रहता । आप ही जंगम स्थावर स्वरूप सब जगत के स्रष्टा हैं, आप ही जगत रूप में खिखाई देते हैं, आप को प्रणाम है। आप ही संसार के पालन करने का भार स्वीकार कर आदिशेष पर अपनी स्त्री लक्ष्मीजी के साथ क्षीर-सागर में निश्चिन्त होकर शयन करते हैं। जगत्पालन कर्म में आप ही सदा जागरूक (सावधान) हैं। हे मधुसूदन ! आप हसारे बारे में क्यों विचार नहीं करते? हे भगवन आए प्रसन्न हों । हे सुरेश्वर, आप अवश्य प्रसन्न हो !! हे करुणा सागर ! हे वरदायक ! हे निर्दोष परमात्मन आप प्रसन्न हों । (१०-१४) एतस्मिन्नन्तरे कश्चिच्छङ्कचक्रगदाधरः ।। १५ ।। पार्षदः परमेशस्य व्योम्नि चाऽगत्य वै मुनीन् । पुरुषः सोऽब्रवीदेवं श्रूयतामिति तान् मुनीन् ।। १६ ।। आास्ते भमौ गिरौ क्वापि मायावी कमलापतिः ।