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78 किमर्थमागतं सद्भिर्युष्माभिः सनकादिभिः ।। १७ ।। तत्रैव यूयं गच्छध्वमिति चोक्त्वा ययौ पुनः । ठीक इसी समय शंख-चक्र-गदाधारी परमेश्वर का कोई परिचायक या पार्षद उसी जगह आकाश में आकर मुनियों से 'सुनिये' कहकर कहने लगा-“हे मुनियो, महामायावी लक्ष्मीपति भगवान पृथ्वीतल में किसी पर्वत पर रहते हैं—आप लोग सनकादि महामुनियों के साथ यहाँ किसलिए आये हैं? आप सब उसी स्थान को जाइये' यह कहकर वह चला गया । (१५-१७) निवृत्य तरसा तस्माद्देशाद्वै सुरसत्तमाः ।। १८ ।। सम्भूय ते विचार्याथ 'किमर्थ कमलापतिः । मुक्त्वा क्षीराब्धिमध्यं तु वसेद्भूमौ सनातनः' ।। १९ ।। इति सञ्चिन्त्य मनसा वैकुण्ठं लोकमुत्तमम् । ययुस्ते मुनयः सर्वे योगिनस्त्रिदशा अपि ।। २० ।। गच्छन्तो मार्गमध्ये तु ददृशुर्नारदं मुनिम् । महतीं वादयन्तं च वीणां स्फटिकसन्निभाम् ।। २१ ।। कपूरधूलिसदृशपुण्ड्रोद्भासितविग्रहम् । वैकुण्ठलोकादायान्तं दृष्ट्वा तं मुनयोऽबृवन् ।। २२ ।। तत्पश्चात शीघ्र ही उस स्थान से लौटकर सब सुर श्रेष्ठ इकट्ठे होकर विचार करने लगे कि किस कारण से कमलापति भगवान् क्षीरसागर को छोड़कर पृथ्वी पर निवास करते हैं ? ऐसा विचारकर वे योगि समुदाय, मुनिदेव मनोवेग से वैकुण्ठ लोक को गये । जाते समय रास्ते में वैकुण्ठ से आते हुए, स्फटिक के समान चमकनेवाली महती नाम को वीणा को बजाते, कपूर की धूलि से धूसर शरीरवाले तिलक से प्रकाशित शरीरवाले मुनिश्रेष्ठ श्री नारदजी को देखकर वे लोग पूछने लगे । (१८-२२) क्वासि नारद पुण्यात्मन् ! त्रैलोक्यं विदितं तव । न तवाविदितं किञ्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते ।। २३ ।।