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79 क्व वा वसति लक्ष्मीशः ? शंस विद्वन् महामुने । श्रीशैलस्य समीपे तु दैत्याः केचन मायिनः ।। २४ ।। बाधन्ते मनुजांस्तीव्र तापसान्योगिनो मुनीन् । रावणः सगणो नित्यं बाधते बलगर्वितः ।। २५ ।। एतेषां निग्रहे शक्तो विष्णुरेव महाबलः । तमेव शरणं यामः स तु कुत्र वसेदिति ।। २६ ।। हे भुनीन्द्र, आप कहाँ ? हे पुण्य स्वरूप ! आप तीनों लोक के जानकार हैं, आपसे त्रैलोक्य में कोई भी स्थान अज्ञात नहीं है, अत एव कृपया बतलाइए कि श्री लक्ष्मीपति किस स्थान में रहते है? हे भुनीश्वर, श्रीशैल के समीप कई माया कारी दैत्य मुनियों, योगियों, तपस्विवों तथा मनुष्यों को अनन्त कठिन् पीडा देते हैं, बलगर्भित रावण सगण सबको बहुत कष्ठ पहुँचाता है । इन दुष्टों का महाबल विष्णु ही निग्रह कर सकते हैं, हम लोग उन्हीं की शरण में जाते हैं, वे कहाँ निवास करते हैं। (२३-२६) पृष्टः प्राह मुनीन्द्रोऽपि तान् मुनीन्प्रतिपूज्य च । नारायणमहं द्रष्टुं दिव्यकल्याणविग्रहम् ।। २७ ।। अगमं परमं धाम परमानन्दकारणम् । तदा कश्चित्समभ्येत्य तत्र मामुक्तवानिदम् ।। २८ ।। भूमौ क्वापि गिरौ विष्णुर्लक्ष्म्या सह विमोदते' । इति श्रृत्वा वचः सम्यगागच्छामीह तापसाः ।। २९ ।। यह सुनकर नारदमुनि उन ऋषि आदियों की अभ्यर्थना कर कहने लगे “हे तापसगण, मैं उसी धाम, परमानन्द कारण, दिव्य कल्याण-स्वरूप नारायण को ही देखने परमधाम वैकुण्ठ गया था । वहीं मुझसे किसीने आकर कहा कि पृथ्वी पर के ही किसी पर्वत पर भगवान लक्ष्मीजी के साथ आनन्द से रहते है।” यही बात सुनकर हम भी यहाँ आये हैं। (२७-२९)