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81 'स्वामिंस्तवैव कृपया न कुत्रापि दुरत्ययः । मङ्गलं सर्वथाऽस्माकं सर्वलोकपितामह ।। ३७ ।। किन्तु बाधा च महती रावणस्य दुरात्मनः । दैत्याः केचन संभूताः श्रीशैलस्य समीपतः ।। ३८ ।। बाधन्ते सर्वमनुजान् कर्मानुष्ठानतत्परान् । तपोव्ययभयात्सर्वे सहन्ते मुनयोऽमलाः ।। ३९ ।। इतः परमशक्यं तत्सोढं रावणचेष्टितम् । मायावी भगवान् विष्णुः सर्वोपायविशारदः ।। ४० ।। एतेषां हनने शक्तः सर्वशक्तिधरश्च सः । न पश्यामश्च तं विष्णु कुत्रापि भुवनत्रये ।। त्वमेव गतिरस्माकमस्मांस्त्राहि महाभयात्' ।। ४१ ।। हे प्रभो, आप ही की कृपा से हम लोगों को कहीं किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता था, सभी तरह से हम लोग सकुशल रहते थे ; किंतु इस समय दुष्ट रावण की बाधा है, दैत्यगण मिलकर श्रीशैल के समीप सभी कर्मानुष्ठान तत्पर तपस्विगणों को अनन्त बाधा देते हैं । हे प्रभो, सत्र मुनिवृन्द अभी तक की हुई तपस्या के व्यय से डरते हुए किसी तरह उनके उपद्रव तथा बाधाएँ सह रहे हैं, पर अब रावणकृत उपद्रव सहने में सर्वथा असमर्थ हैं। अस्तु मायावी भगवान विष्णु ही जो सब प्रकार के उपायों को करने में कुशल हैं, इनका नाश कर सकते हैं । किन्तु तीनों लोकों में हम लोग उस सर्व-शक्तिमान परमात्मा को नहीं देख सके । अब आप ही हम लोगों की गति है। आप हम लोगों को इस महाभय से बचाइये । (३७-४१) इतीरितो योगिवरैश्च तापसैर्बुधोत्तमैः शक्रपुरोगमैश्च । ध्यात्वाऽथ देवः कमलासनोऽपि प्रोवाच देवान्मुनिपुङ्ग वांश्च ।। ४२ ।। योगिश्रेष्टों, तपस्वियों, मतिमानों, इन्द्रादि प्रमुख देवताओं से यह सुनकर कमलासन श्रीब्रह्माजी ध्थानकर उन देवता तथां मुनियों से बोले । (४२) इति श्रीवराहपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये रावणादि पीडितदेवर्षीणां क्षीरार्णवब्रह्मलोकादि गमनवर्णनं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायोऽलैकादशः ] .