( दस ) वैषम्य को सिद्ध करने के लिये पाणिनि को दो सूत्र बनाने पड़े। नाटक के विषय में तो कोई विशेषता थी नहीं, उसमें तो सीधे नटधातु से ‘बुल' प्रत्यय होकर यह शब्द बन ही जाता । भरत द्वारा उल्लेख करना भी कोई सवल तर्क नहीं है। पाणिनि भरत से बहुत पहले हुये थे। इतने लम्बे समय में उन नट सूत्रों का गुम हो जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। वे नटसूत्र विद्यमान भी रहे हों किन्तु उनकी ओर भरत का ध्यान न गया हो यह भी असम्भव नहीं है। अतः इन तक के आधार पर इतना बड़ा निष्कर्ष निकाल लेना तर्क संगत नहीं कहा जा सकता कि ‘उस समय तक नाट्य कला विकसित हुई ही नहीं थी; अतः नटसूत्रों का क्षेत्र मूकामिनय तो हो सकता है; सामान्य अभिनय नहीं। इसमें यह निष्कर्ष निश्चित रूप से निकलता है कि उस समय तक नाटक रचना इस स्तर तक पहुंच चुकी थी कि उसको शास्त्रीयता के घेरे में बांधने की आवश्यकता भी अनुभव की जाने लगी थी और नटसूत्र लिखे जाने लगे थे। व्याकरण के दूसरे महान आचार्य पञ्जलि के कथन से तत्कालीन नाट्यरचना की सत्ता अधिक स्पष्टता से सिद्ध हो जाती है। भाष्यकार ने दो नाटकों का नाम लिया है कंसवध और वलिबन्ध। वहां यह प्रश्न उठाया गया है कि ये दोनों घटनायें बहुत पहले हो चुकी है उनमें वर्तमान काल का प्रयोग कैसे संगत हो सकता है। इसका उत्तर दिया गया है कि वर्तमानकालता तीन रूपों में सिद्ध होती है- (१) शौभिक जो रंगमश्च पर प्रत्यक्ष रूप से कंस का वध करते हैं या बलि-बन्धन करते हैं क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप में होता है अतः उसमें वर्तमानता संगत हो जाती है। (२) यही बात चित्र में होती है चित्र में कृष्ण द्वारा कंस का वध दिखलाया जाता , वहां उठाये एवं तैयार किये और गिराये जाते हुये प्रहार दिखलाये जाते हैं जिससे वर्तमानकालता आ जाती है और (३) ग्रन्थवाचक लोग मानव-समूह (श्रोताओं) के सामने कथा कहते हैं। तब वे जो भी वर्णन करते हैं उससे वर्तमानता आ जाती है। इस प्रकार इन तीनों साधनों से कंस की उत्पत्ति से लेकर मृत्युपर्यन्त उनका व्यक्तित्व की एक धारणा जनता की बुद्धि का विषय बन जाती है और जनता उसे प्रत्यक्ष दृष्टिविषय मानने लगती है। यहां कृष्ण और कंस के दो विरोधी स्वरूप मिश्रित रूप में बुद्धिगत हो जाते हैं। कुछ लोग कृष्णभक्त होते हैं; कुछ लोग कंसभक्त। उनके रंग का अन्तर भी बुद्धिगत हो जाता है- कोई कालामुख बनाकर आते हैं कोई लाल मुख। इस बुद्धिगत तत्व से सभी व्यवहार संगत हो जाते हैं। इसी लिये व्यवहार में तीनों काल भी संगत हो जाते हैं, जैसे- 'अब जाकर क्या करोगे कंस तो मार डाला गय’ (भूतकाल) 'जल्दी जाओ कंस मारा जा रहा है’ (वर्तमान) ‘कंस मारा जायेगा। कहा भी गया है शब्दोपहितरूपांश्व बुद्धेर्विषयतां गतान् प्रत्यक्षमिव कंसादीन् साधनत्वेन मन्यते [जिनका स्वरूप शब्दों द्वारा समीर्पत कर दिया जाता है और जो बुद्धि का विषय बन जाते हैं उन कंसादिकों को (परिशीलक) वध इत्यादि का साधन मान लेता है।
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