( बारह ) गये । रामायण के नाटकीकरण के अतिरिक्त कौवेररम्भामिसरण के अभिनय के भी उल्लेख किया गया है रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकीकृतम् । रम्भाभिसारं कौवेरं नाटकं ननृतुस्तदा॥ हरिवंश के अतिरिक्त, मत्स्य, विष्णुधमत्तर पुराण मार्कण्डेय पुराण इत्यादि दूसरे पुराणों में भी नाट्यसामग्री उपलब्ध होती है। भागवत में अभिनय का उल्लेख किया ही जा चुका है। मत्स्य पुराण और विष्णुधमोंतर पुराणों में नाट्यमण्डपों के निर्माण पर भी प्रकाश डाला गया है। अग्निपुराण में नगरनिर्माण एवं वास्तुकला के विवरण में नटों, नर्तकों, वेश्याओं आदि के निवास के लिये नगरों के दक्षिण में व्यवस्था का निर्देश किया गया है। आशय यह है कि यद्यपि हमें तत्कालीन पूर्ण नाटक के दर्शन नहीं होते किन्तु पुराणों में जिस प्रकार का नाट्य सम्बन्धी विवरण प्राप्त होता है उससे स्वभावतः अनुमान लगाया जा सकता है कि ठस समय किसी परिमाण में नाट्य रचनायें हुई होंगी जो कालक्रम से लुप्त हो गई । = नाट्य और धर्म नाट्य की उत्पत्ति और उसका विकास मूलरूप से धार्मिक वातावरण में हुआ। भरत के दिये हुये उपाख्यान के अनुसार उसकी उत्पत्ति में चारों वेदों और तीनों देवों का योगदान है। इसका प्रथम अभिनय इन्द्रध्वज महोत्सव में हुआ था जिसमें सर्वप्रथम ब्रह्मा के द्वारा लिखे हुये नाटकों के अभिनय की ही योजना की गई वेदोण्वेदैः संबद्धो नाट्यवेदो महात्मना। एवं भगवता सृष्टो ब्रह्मणा सर्व वेदिना। ठत्पाद्य नाट्यवेदं तु ब्रह्मोवाच सुरेश्वरम् । इतिहासो मया सृष्टः स सुरेषु नियुज्यताम् ॥ ना.शा.१-१८१९. अभिनय में प्रवृत्त होने वाले (अभिनेताओं) की भी प्रमुख विशेषता धार्मिक जीवन, वेद के रहस्य को समझना और साधना इत्यादि गुण ही माने गये थे। वे ही इसके प्रहण और धारण में समर्थ थे य एते वेदगुह्यज्ञा ऋषयः शंसितव्रताः एतेऽस्य ग्रहणे शक्ताः प्रयोगेधारणे तथा ॥ विनों के अपसारण के लिये जर्जर का निर्माण किया गया और सभी देवताओं ने अपनी अपनी विशेषतायें नाट्यकला को प्रदान कीं। दिशाओं विदिशाओं में विभिन्न देवताओं को रक्षा के लिये नियुक्त किया गया। नाटक के उद्घाटन में पूजा का महत्व माना गया और कहा गया कि नाट्य की सफलता के लिये पूजा विधि अनिवार्य है
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