( अट्ठारह ) ही होनी चाहिये। नाटक की सफलता नाटक का अनिवार्य तत्व है इसीलिये पाश्चात्त्य परम्परा में स्वीकृत त्रासदी से इसका पृथक्करण हो जाता है। इसमें न तो नायक की पराजय दिखलाई जाती है,न युद्ध भूमि से पलायन,न विवशता जन्य सन्धि। वस्तुतः नाटक का चरम उद्देश्य नायक की विजय और उसकी सम्पन्नता ही है जिसके अभाव में नाटक अपनी संज्ञा से ही च्युत हो जायेगा। यदि कहीं मध्य में नायक की पराजय का भी प्रश्न उपस्थित हो तो उसकी सूचना भर दे दी जाती है। रंगमश्च पर उसका प्रदर्शन नहीं किया जाता, मृत्यु की तो सूचना भी नहीं दी जाती। कुछ लोग भारतीय नाटकों को कामदी (पाश्चात्य कमेडी) कहने के आदी हैं। किन्तु अपने ठीक अर्थ में भारतीय नाटक को कमेडी कहना उसके प्रति न्याय नहीं होगा। कमेडी तो बहुत ही नीचे स्तर की वस्तु है। उसका जीवन और वास्तविकता से सम्बन्ध नहीं होता। वह एक मजाक की वस्तु है। किन्तु भारतीय नाटक जीवन के वास्तविक अनुकरण हैं और सर्वथा गम्भीर प्रकृति के हुआ करते हैं। प्रति नायक के शौर्य और शक्ति का बड़े विस्तार से वर्णन किया जाता है और शत्रुओं के प्रतिरोध से उत्पन्न कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने में नायक को पर्याप्त संकटों का सामना करना पड़ता है। अनेकशः उसकी सफलता संदिग्ध हो जाती है। यह दूसरी बात है कि अन्तिम सफलता नायक को ही मिलती है और वह समस्त प्रतिरोधों को पार कर लेता है। भारतीय मनीषी इस विषय में अत्यन्त जागरूक है कि अच्छाइयों की विजय दिखलान चरित्रनिर्माण के लिये अधिक उपयोगी है। बुराइयों का दुष्परिणाम किसी सीमा तक कृतकार्य हो सकता है; किन्तु बुराइयों का अत्यधिक प्रदर्शन स्वयं बुरा है और उसका अवाच्छनीय परिणाम भी हो सकता है। नाटक की कथावस्तु प्रख्यात होती है और किसी प्रसिद्ध ग्रन्थ से ली जाती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि नाटककार की वृत्तियां परम्परागत कथानक से सर्वथा कस जाती हैं। नाटक कोई इतिहास नहीं है; इसलिये इतिहासकार की भांति नाटककार प्रामाणिक इतिवृत्त लिखने के लिये बाध्य नहीं है। उसे यह अधिकार होता है कि मूल कथा में जो तत्व नायक या रस के प्रतिकूल हो और अपनी योजना से मेल न खाता हो उसे आवश्यकतानुसार बदल ले। इसके लिये वह नई कल्पना भी कर सकता है, नई कथा का प्रवर्तन भी कर सकता है, परम्परागत कथा की नई योजना भी कर सकता है और घटनाओं का क्रमव्यत्यय भी कर सकता है। किन्तु इसके लिये उसे लोक रुचि का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है; अन्यथा असत्यता का प्रतिभास या अनौचित्य स्फुरण में उसका कथानक जनमानस में वितृष्णा ही उत्पन्न करेगा। जिन पात्रों के विषय में जनमानस में जो धारणा बनी हो उसका पूर्ण व्याघात उचित नहीं होता। आचार्य शुक्ल के अनुसार ऐसे विषयों में खिलवाड़ की अपेक्षा नई कल्पना कर लेना अधिक उपयुक्त कहा जा सकता है। नाट्यवर्जनाओं का भी कथानक में ध्यान रखने का आचार्यों ने निर्देश दिया है।
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