( उन्नीस ) कथावस्तु का निर्वाह कथावस्तु का निर्वाह इस रूप में किया जाना चाहिये कि कोई भी अंग अधिक बड़ा और कोई छोटा प्रतीत न हो। नाटक में ५ सन्धियां होती हैं। उसी के अनुसार कम से कम ५ अंकों का विधान है। यदि एक अंक में एक सन्धि की योजना की जाय तो पूरा नाटक सन्तुलित हो जायेगा । किन्तु यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है। फिर भी इतना ध्यान रखना चाहिये कि नाटक इतना बड़ा न बन जाये कि दर्शक ऊबने लगे। अतः नियम बनाया गया है कि किसी नाटक में १० से अधिक अंक नहीं होने चाहिये। अंक में असम्बद्ध कई घटनायें दृश्यों के नाम पर दिखलाने की जो पाश्चात्य परम्परा है वह भारतीय आचार्यों को मान्य नहीं है। अंक के अन्तर्गत पूर्ण रूप से संबद्ध एक ही घटना दिखलाने की परम्परा है। छोटी छोटी अन्य घटनायें अथोपक्षेपकों द्वारा दिखला दी जाती है। यद्यपि भारतीय नाट्यशास्त्रकारों ने संकलनों का विवेचन नहीं किया है जैसाकि स्थल, कार्य और काल संकलन की परम्परा पाश्चात्य साहित्य में है, फिर भी एक दिन में निर्वर्य कथा को एक अंक में दिखलाने और शेष अंश को सूच्य बनाने का निर्देश भारतीय नाट्य को भी संकलनों के पर्याप्त निकट लाता है। इसी प्रसंग में अथपक्षेपकों का भी ववचन किया गया है। प्रकरण यह पूर्ण नाटक का दूसरा प्रकार है जिसमें रचना की सभी प्रवृत्तियों का नाटक के अनुसार ही निर्वाह किया जाता है। कथानक और पात्र कल्पित एवं अपरिचित होते हैं; किन्तु उनकी अन्तरात्मा अपरिचित नहीं होती। वे पात्र हमारे साथ रोज चलने फिरने उठने बैठने वालों के समकक्ष ही होते हैं। अतएव उनसे आत्मीयता बना लेने में कठिनाई नहीं होती । अचिरात् उनकी भावनायें परिशीलकों की भावनायें बन जाती हैं और परिशीलक उस आत्मीयता के प्रभाव से रसास्वादन में सक्षम हो जाता है। वस्तुतः नाटक के आदर्श पात्रों की अपेक्षा प्रकरण के पात्र लोकवृत्त के अधिक निकट होते हैं। प्रकरण का नायक ब्राह्मण, बनियां, अमात्य इत्यादि में कोई भी होता है। नायिका कुलवती भी होती है और वेश्या भी अथवा दोनों का मिलाजुला रूप होती है। तरंगदत्त में वेश्या नायिका ,पुष्पदूषितक में कुलवती स्त्री और मृच्छकटिक में दोनों ही । किन्तु उनके भी अपने आचार और मर्यादायें होती हैं। प्रकरण के नायक में नाटक के नायक जैसी उदात्तता नहीं होती। कुछ लोगों के मत में निम्नजाति की स्त्री भी नायिका हो सकती है। नायक अधिकतर धीरशान्त होता है किन्तु कुछ लोग उसे धीरोदात्त रखने के भी पक्षपाती हैं। जिस प्रकरण में विट, चेट, कितव, शकार इत्यादि पात्र होते हैं वह संकीर्ण प्रकरण कहा जाता है। नाटक और प्रकरण दोनों पूर्ण नाटक के प्रकार हैंकिन्तु रस निष्पत्ति और रसास्वादन के सुकर होने के कारण नाटक का महत्व अधिक है। समाज के अधिक निकट होने और
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