( इक्कीस ) शक्तिशाली युद्ध की तैयारी में लगे रहते हैं जिनमें परस्पर फूट के दृश्य भी सम्मिलित रहते हैं। १६ पात्रों का समावेश विहित है जो अधिकतर देव, असुर, राक्षस, भूत, नाग, यक्ष इत्यादि होते हैं। रचना सात्वती और आरभटी वृत्ति में होती है। दशरुपककार ने भारती वृत्ति को भी सम्मिलित किया है। भारती एक सामान्य वृत्ति है। अत: उसका सम्मिलित करना भरत की मान्यता के विरुद्ध नहीं जाता। साहित्य दर्पण कार ने इसमें शान्त रस को भी स्वीकार किया है। विमर्श को छोड़कर सब सन्धियां होती हैं। भरत ने इसके नायक का ठदान्त चरित्र बतलाया है जो इसके उद्धत कथानक से मेल नहीं खाता। नाट्यदर्पण कार ने इसकी संगति इस प्रकार बैठाई है कि इसके पात्र यक्ष, राक्षस, भूत प्रेत इत्यादि होते हैं। ये मानव के लिये उद्धत हो सकते हैं किन्तु अपने वर्ग की दृष्टि से इनके उदात्त होने में कोई विरोध नहीं। अपने वर्ग में तो इनका चरित्र तुलनात्मक दृष्टि से उदात्त हो ही सकता है। इसके उदाहरण हैं त्रिपुरदाह, तारकोद्धरण, वीरभद्रविजय, मन्मथोन्मथन इत्यादि। (३) ईहामृग- यह चार अंकों का नाटक होता है। इसमें वस्तु आंशिक रूप में प्रख्यात तथा आंशिक रूप में कल्पित होती है। कथावस्तु का मूल ढांचा और पात्र प्रख्यात होते हैं, किन्तु उनका निर्वाह काल्पनिक ढंग से किया जाता है। अंकों की संख्या में समानता होते हुये भी इसमें गर्भ सन्धि नहीं होती, केवल तीन सन्धियां होती हैं। साहित्यदर्पणकार का कहना है कि कुछ लोग इसे एकाझी नाटक मानते हैं। ईहामृग का अर्थ है भेड़िया। यह जीव अपने छल कपट और चालाकी के लिये प्रसिद्ध है। इस रुपक में इसी प्रकार के छल कपट किये जाते हैं इसीलिये इसका यह नाम पड़ा है। धनिक ने इसका अर्थ किया है ईहा मे जो मृग (जंगली जीव; जिस प्रकार जंगली जीव ऐसी स्त्री की कामना करता है जिसका प्राप्त करना अशक्य होता है उसी प्रकार इस नाटक में भी नायक ऐसी नायिका की कामना करता है जिसका प्राप्त हो सकता उसके लिये कठिन होता है। नाट्यदर्पण कार ने अर्थ किया है जिसमें मृगों के समान केवल स्त्री की कामना की जाय। इसमें प्रतिनायक की ऐसी चेष्टा रहती है कि नायक अपनी प्रेयसी प्राप्त न कर सके। नायिका प्रायः दिव्य स्त्री होती है। प्रतिनायक अनेक प्रकार के छल कपट के द्वारा नायक को वश्चित करना चाहता है। ऐसी परिस्थिति ला देता है कि युद्ध अनिवार्य हो जाता है। भरत ने ईहामृग की विशेषतायें बतलाते हुये लिखा है कि इसमें देव पुरुष स्रियों के लिये युद्ध में प्रवृत्त रहते हैं, किन्तु परवर्ती आचार्यों ने इस नियम में परिवर्तन कर मर्यपात्र को को भी इस प्रकार के कथानक का पात्र बनने का अधिकार दे दिया है। दशरूपक के अनुसार नायक और प्रतिनायक में कोई एक मर्य हो सकता है, या दोनों मर्य हो सकते हैं या दोनों देव । नाट्यदर्पण कार का कहना है कि प्रधान नायक तो दिव्य ही होना चाहिये किन्तु उसमें अनेक उद्धत मानव दिखलाये जाने चाहिये। किन्तु इसमें
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