( तेइस ) जाय वह अर्थ शृङ्गार होता है; जहां उपभोग की आकाङ्क्षा और वासना की प्रेरणा से कामोपबोग में प्रवृत्ति देखी जाय वह कामशृङ्गार होता है। धर्म शृङ्गार का फल होता है पर स्त्री वर्जन और दानादिधर्म। इस प्रकार स्वपली विषयक शृङ्गार का हेतु होता है धर्म और फल भी धर्म ही होता है। अर्थशृङ्गार वेश्याओं और रूपवान पुरुषों के लिये धन रूप फल का देने वाला होता है। काम शृङ्गार की नायिका होती है परस्त्री या कन्या। समवकार में तीन अंकों में तीन तत्व पृथक् पृथक् दिखलाये जाते हैं। प्रत्येक अंक में एक धर्म, एक कपट और एक उपद्रव दिखलाया जाता है। नाटक में प्रहसन भी होता है और वीथी के अंगों का भी समावेश रहता है। यह नाटक सब से लम्बा होता है। ७ घण्टे १२ मिनट लगते हैं। पहले अंक में १२ दूसरे में चार और तीसरे में दो नाडियां होती हैं। पात्रों की संख्या १२ होती है। कुछ लोग प्रत्येक अंक में १२ पात्र मानते हैं। कुछ लोग कुल मिलाकर १२ मात्र मानते हैं। नायक और प्रतिनायक तथा दोनों का एक एक सहायक, इस प्रकार प्रत्येक अंक में चार पात्र होते हैं। इस प्रकार पूरे नाटक में तीन अंकों में १२ पात्र होते हैं। प्रत्येक अंक की कथा अपने में पूर्ण होती है; किन्तु सम्पूर्ण समवकार का एक प्रयोजन होता है जिससे अंकों के प्रयोजन संबद्ध रहते हैं। रचना का क्रम इस प्रकार रहता है पहले आमुख दिखलाया जाता है; फिर तीनों अंकों के उपक्षेपक बीज की रचना की जाती है; प्रथम और द्वितीय दोनों अंकों के कथानक का पल्लवन किया जाता है। फिर तीसरे अंक की संयोजना इस प्रकार की जाती है कि प्रथम दो अंकों का भी समन्वय हो जाता है। अनुसन्धानात्मक बुद्धि से अध्ययन करने पर समवकार दर्शकों को त्रिवर्ग साधन में व्युत्पन्न भी बनाता है। सारांश यह है कि समवकार में हास्यमिश्रित शृङ्गार रहता , कपट, युद्ध और उपद्रव का समावेश रहता है। दैवी शक्ति की भी सहायता प्राप्त होती है। अनेक विषयों को एक में जोड़कर कथानक का निर्माण किया जाता है। शास्त्रीय ग्रन्थों में समवकार का उदाहरण अमृतमन्थन बतलाया जाता है। इसी नाटक को अब्धिमन्थन, पयोधिमन्थन नामों से भी याद किया जाता है। कीथ ने भास के पञ्चरात्र को भी समवकार का ठदाहरण बतलाया है। (५) व्यायोग- यह एकाझी होता हैव्यायोग शब्द का अर्थ है- विशेषेणआ समान्तात् युज्यन्ते कार्यार्थं संरभन्तेनेति व्यायोगः अर्थात् विशेष रूप से चारों ओर से कार्य के लिये युक्त होते हैं या प्रयत्न करते हैं उसे व्यायोग कहा जाता हैं। इस व्युत्पत्ति से ज्ञात हो जाता है कि इसमें कथावस्तु ऐसे नायकों से संबद्ध होती है जो फल प्राप्ति की आतुरता में अपने कार्यकलाप में निरन्तर संलग्न रहते हैं। इसमें केवल एक दिन की घटना को ही नाट्यविषय बनाया जाता है। इसीलिये इसे एकाफ़ी रखने का निर्देश है। इसका नायक अत्यन्त उद्धत होता है और अपने अभीष्ट फल को यथा सम्भव शीघ्र ही प्राप्त कर लेना चाहता है। इसका नायक प्रख्यात व्यक्ति होता है और कथानक भी प्रख्यात ही होता है।
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