पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/४९

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( चालीस ) को स्वयं खरीद लेते थे और उन्हें अपने नाम से प्रकाशित कर देते थे। ऐसे नाटकों की संख्या बहुत अधिक है जिनका उल्लेख नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों में उदाहरण के रूप में पाया जाता है। कहीं नाटक का नाम है। कहीं उनसे उद्धरण दिये गये हैं, कहीं कथानक की उदाहरणों से संगति बैठाई गई है। कई नाटक ऐसे भी हैं कि नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों के विवरण से उनका परिचय प्राप्त किया जाता है। ऐसे ग्रन्थ राजघरानों के पुस्तकालयों में सुरक्षित पड़े हैं जिनके अनुसन्धान की आवश्यकता है। कवियों के राजाश्रय का यथास्थान यथासम्भव परिचय दे दिया गया है। राजकीय पुस्तकालयों के अतिरिक्त कलकत्ता, मद्रास, बंगलौर, तंजौर, बम्बई, पूना, बनारस, दिल्ली इत्यादि अनेक बड़े शहरों में उच्चकोटि के पुस्तकालयों में पाण्डुलिपियों की सूची बनी हुई है; अनेक खोज रिपोर्ट विद्यमान हैं। निस्सन्देह इन सबका स्वतन्त्र अनुसन्धान भारतीय कला और संस्कृति पर महत्व पूर्ण प्रकाश डाल सकेगा लेखक की यह वलवती आशंसा है। खेद इस बात का है कि विदेशी शासन में इस दिशा में जो गति विधि चल रही थी वैसा उत्साह अब इस दिशा में मन्द पड़ गया है। यह भारत की अपार सम्पत्ति है जिसका अनुसन्धान नितान्त अपेक्षित है। आधुनिककाल २०वीं शताव्दी २० वीं शताब्दी का भारतीय इतिहास अपने स्वरूप में समस्त प्राक्तन इतिहास से पृथक् दृष्टिगत होता है। यों तो विदेशों से भारत का सम्पर्क ई.पू. ५वीं शताब्दी से किसी न किसी रूप में चलता रहा; शक, हूण, यवन, कुशाण आदि जातियां भारत में आती रहीं; हिन्दू सम्प्रदाय की उदार मनोवृत्ति के कारण वे यहां की निवासी ही नहीं बनती गई अपितु हिन्दू समाज में समाहित भी होती गई। मुस्लमानों का आगमन उन जातियों के आगमन से इस अर्थ में भिन्न रहा कि मुसल्मान साम्राज्य स्थापना का मंशा लेकर एक विजेता के रूप में भारत में आये और असंगठित हिन्दू जाति पर विजय प्राप्त कर यहां शासन स्थापित कर लिया। मुसल्मनों का उद्देश्य धर्म प्रचार करना भी था और इसमें वे कभी कभी अत्याचार की नीति भी अपनाते थे। किन्तु सब बातों के होते हुये भी वे यहां के निवासी बन गये थे और भारतीय समाज से भाई चारा भी स्थापित कर लिया था। शताब्दियों तक दोनों सम्प्रदाय घुलमिल कर भाईचारे के साथ रहते रहे। यद्यपि यवन इत्यादि जातियों के समान उनका अपनी धार्मिक मान्यताओं के साथ हिन्दू समाज में पूर्ण विलय तो नहीं हुआ; किन्तु प्रशासकीय स्तर पर उनका किसी अन्य देश से सम्पर्क न होने के कारण वे शुद्ध भारतीय रूप में यहां के निवास बन गये। उनकी संस्कृति, उनके आचार विचार यद्यपि हिन्दू जाति से सर्वथा पृथक् बने रहे; भारतीय समाज की आत्मसात करने की वह प्रक्रिया नहीं अपनाई जा सकी जिसने भारतीय समाज को अक्षुण्ण बनाये रक्खा और विभिन्न विचार धाराओं को आत्मसात् करने से उसके कलेवर की अभिवृद्धि की। दोनों समाजों में विभेद को दूर नहीं किया जा सका। सात आठ सौ वर्ष की लम्बी अवधि में उदार मनोवृत्ति के मुस्लिम शासक भी हुये और क्रूर स्वभाव के अत्याचारी