( अड़तालीस ) से लेकर साधुवेष में राजधानी पहुंचने तक का चित्रण किया गया है। राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी का २० वर्ष का प्रथम उत्थान काल १९०५ में समाप्त हो गया। इन बीस वर्षों में कांग्रेस प्रस्ताव पास करने और अंग्रेज सरकार से कुछ प्राप्त करने का असफल प्रयास करती रही । इसी बीच जापान की रुस पर विजय से भारतीय राष्ट्रीयता वादियों को एक झटका लगा। कुछ उग्रवादी तत्व अधिक आक्रमक रुख अपनाने लगे। अंग्रेजों ने भारतीय नेताओं की शक्ति को कम करने के लिये बंगाल को दो भागों में बांट दिया। १९०६ में ढाका में नवाब सलीमुल्ला के तत्वावधान में मुस्लिम लीग की स्थापना की गई जो प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय आन्दोलन में अंग्रेजों का पक्ष लेकर चली थी और राष्ट्रीय आन्दोलन में विरोधी दल का कर्तव्य निभा रही थी। १९०९ में मिन्टोमाल रिपोर्ट में मुसल्मानों को पृथक् मताधिकार देकर विरोधी भावना अधिक बढ़ा दी गई। बंगभंग के प्रतिकूल बंगाली नवयुवकों सुरेन्द्रकुमार बनर्जी, विपिनचन्द्रपाल, एसूल, अश्विनी कुमार दत्त और अरविन्दघोष के नेतृत्व में आन्दोलन चल निकला जिसकी परिणति १९११ में हुई। १९०७ में कांग्रेस गरम दल और नरम दल में विभाजित हो गई। इसके बाद का स्वराज्य का आन्दोलन शासक जाति के विरोध रूप में चल दिया। इस आन्दोलन में देश के महान सपूत क्षेत्र में अवतीर्ण हुये और उनके पुण्य प्रयास से भारत विदेशियों के चंगुल से छूटने का सौभाग्य प्राप्त कर सका। संस्कृत नाटकों में विभिन्न नेताओं के विषय में कई कृतियां प्राप्त होती हैं जिनमें कुछ का परिचय नीचे दिया जा रहा है (अ) अरविन्द घोच- भारत के उन महनीय सपूतों में एक थे जिनको अनेक रूपों में जन समाज का अभिनन्दन प्राप्त हुआ था। वे अनन्य साधारण समाज सुधारक थे, प्रज्वलित राष्ट्रवादी नेता थे, अनुपम योगिराज थे जिन्हें साधना में ईश्वर दर्शन हुआ था, उच्चकोटि के कवि थे और योग साधना की नई पद्धति के जन्मदाता थे। सर्वप्रथम हमें उनके दर्शन बंगभंग आन्दोलन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, विपनचन्द्र पालअश्विनी कुमार दत्त के साथ नेता लोगों में होता है। फिर वे अराजकतावादी विद्रोहियों में शामिल हो जाते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध १९१४ में भारतीय स्वतन्त्रता का एक अच्छा अवसर समझ कर इन्होंने जापान से शत्र सहायता का प्रयत्न किया। अलीपुर जेल में योग साधना प्रारम्भ की जिसका ठद्देश्य भारतीय स्वाधीनता के लिये आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करना था। बहन निवेदिता ने एक बार उन्हें पुलिस से बचाने के प्रयत्न में अपने यहां बन्दी बना रक्खा था। उनके चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता थी सफलता प्राप्ति के बाद स्वयं को उधर से मुख मोड़ लेना और किसी भी सफलता का श्रेय स्वयं न लेना। जेल से छूटने के बाद वे उस समय के बंगाल के फ्रेंच उपनिवेश चन्द्र नगर चले गये। उनकी अन्तरात्मा
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