( सत्तावन ) पर भी प्रभाव डालती है और कुछ सौ वर्ष पहले लोकभाषा में लिखा साहित्य परवर्ती पीढी के लिये असंवेद्य हो जाता है। यह एक बहुत बड़ी हानि है। इससे साहित्य चिरन्तन नहीं बन पाता। इस हानि का प्राचीन आचायों ने अनुभव किया और एक ऐसी भाषा की आवश्यकता समझी जिसमें लिखा साहित्य असीमित काल तक सुरक्षित रक्खा जा सके। इसी ठद्देश्य से भाषा का संस्कार किया गया और एक ऐसी जकड़ी हुई का भाषा स्वरूप स्थिर कर दिया जिसमें कालान्तर में परिवर्तित होने की प्रवृत्ति जाती रही। यह सच है कि संस्कृत सर्वसाधारण की भाषा नहीं हो सकी, क्योंकि यह नियमों से बंधी हुई। है और नियमों का अतिक्रमण कर मनमाने ढंग से बोलने का इसमें अवसर ही नहीं है, साथ ही यह भी सच है कि यह स्थायी साहित्य के लिये सर्वथा उपयुक्त है। हिन्दी में चन्द्रवरदायी तथा उनके समय के दूसरे कवियों की भाषा असंवेद्य हो गई है। संस्कृत नाटकों में जिन प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है उनको भी बिना संस्कृत छाया के समझना कठिन या लगभग असम्भव है। १४वीं १५वीं शताब्दी की भाषा भी आसानी से आज के नवयुवक की समझ में नहीं आती जबकि नियमों का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद हजारों वर्ष पहले लिखी हुई व्यास और वाल्मीकि की भाषा इसी रूप में पढी जाती है जैसे वह आज ही लिखी गई हो। निस्सन्देह स्थायी साहित्य रचना का उद्देश्य संस्कृत भाषा पूरी सफलता के साथ पूरा करती जा रही है। यह प्रसन्नता की बात है कि वह आधुनिक साहित्य को भी आत्मसात किये हुये है। नाटक साहित्य ललित कला का सर्वोत्कृष्ट आकर्षक साधन है। किन्तु रचनाकारों की इस ओर प्रवृत्ति साधना में निपुणता प्राप्त कर लेने के बाद ही होती है। सर्वप्रथम मुक्तक में प्रवृत्ति होती है; फिर प्रबन्ध की ओर कवि अप्रसर होता है और प्रबन्ध में निष्णात होकर महाकाव्य लिखने का साहस करता है। नाटकरचना अत्यन्त परिनिष्ठित काव्यकलाजन्य प्रवृत्ति है जो रचनाकारों को सर्वोत्कृष्ट प्रतिष्ठा दिलवाने के कारण होती है। जो गौरव सेक्सपियर और कालिदास को प्राप्त है; कालिदास और भवभूति का जितने गौरव के साथ नाम लिया जाता है वह प्रतिष्ठा भारवि, माघ, मिल्टन, वाल्टर स्काट आदि को प्राप्त नहीं है। यह सन्तोष की बात है कि संस्कृत का आधुनिक नाट्य साहित्य भी किसी भी दिशा में पीछे नहीं है। इसमें पाश्चात्य नाटकों के अनुवाद हैं, आधुनिक प्रवृत्तियों की झलक है, आधुनिक नाट्य प्रक्रिया का अनुसरण है जबकि प्राचीनता का अंचल भी छूटा नहीं है। लेखक की आशंसा है इसी प्रकार अनन्तकाल तक संस्कृत नाट्यकला अपना पवित्र कर्तव्य निभाती हुई जनसाधारण को कृतार्थ करती रहे। - रामसागर त्रिपाठी
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