पृष्ठम्:सिद्धान्तशिरोमणिः.djvu/23

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( १५ ) अन्य सिद्धान्त का लक्षण सिद्धान्त शेखर ग्रन्थ में इस प्रकार से है--

  • ‘शतानन्दध्वस्ति प्रभृतित्रुटिपर्यन्तसमय?'*

इसके अतिरिक्त ‘वटेश्वर सिद्धान्त” में भी इसका लक्षण निम्न प्रकार き THきー 0. 0. . *समष्यमितिप्रशेषा सावनं खेचराणां गणितमखिलमुक्त यत्र कुट्टाद्युपेतम् ।”* तथा प्रकृत ग्रन्थ में भी कहा है ‘त्र्युट्यादिप्रलयान्तकालकलना मानप्रभेदः क्रमात्।' ज्योतिष शास्त्र के इतिहास को देखने से मालूम होता है कि ज्योतिष के ग्रन्थों के दो विभाग हैं। १ आर्ष प्रणीत और दूसरा मनुष्यों द्वारा रचित ग्रन्थ भाग। इस समय में मुनि प्रणीत ग्रन्थों का प्राय: अभाव ही दृष्टिगोचर होता है। मनुष्य रचित सिद्धान्त ग्रन्थों में सर्व प्रथम आचार्य आर्य भट द्वारा रचित ‘आर्यभटीय' ग्रन्थ उपलब्ध होता है। इसके बाद वराहमिहिर कृत ‘पश्चसिद्धान्तिका' पुन: इसके अनन्तर 'ब्रह्मगुप्त' विरचित ‘ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त तत्पश्चात् 'लल्लाचार्य द्वारा रचित 'धीवृद्धिद' तदनन्तर अन्य आचार्यों द्वारा विहित अन्य सिद्धान्त ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के निर्माता का नाम भास्कर है। वर्तमान समय में दो भास्करों की प्रसिद्धि है। - प्रथम भास्कर । इन भास्कराचार्य जी के इस काल में तीन ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। १ आर्य भटीयभाष्यम्, २ रा महाभास्करीयम, ३ रा लघुभास्करीयम् । इनके निवास स्थान आदि विषय में असंदिग्धता ही प्रतीत होती है। क्योंकि इन्होंने अपनी रचनाओं में कहीं भी अपने विषय में कुछ भी नहीं कहा है। शङ्करबालकृष्णदीक्षित ने अपने भारतीयज्योतिष के इतिहास में इनकी चर्चा ही नहीं की है। - - । बड़े खेद का विषय है कि प्रथम भास्कर की चर्चा प्रथम किसी भारतीय विद्वान् ने नहीं की किन्तु इङ्लेण्ड निवासी 'एच्कोलबूक' नाम के विद्वान् ने १८१७ ई० में की। इसके पश्चात् बी० बी० दत्त महोदय ने १९३० ई० में अपने निबन्ध में प्रथम भास्कर का विस्तृत वर्णन किया है। इसके अनन्तर १९३१ ई० में ‘एशार्ट क्रानालाजी आवइन्डियन एस्ट्रानामी' नाम के ग्रन्थ में इनका उल्लेख किया है। १. सि० शे० १ अ० ३ श्लो० ॥ २. वटे० सि० मध्य० ५ श्लो० ॥