पृष्ठम्:सिद्धान्तशिरोमणिः.djvu/30

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( २२ ) इस वासना वातिक की प्रशंसा स्वयं ही नृसिंह ने वातिक के अन्त में की है। जैसे नो या वराहेण च जिष्णुजेन पृथूदकेनार्यभटेन जुष्टाः ॥ असंस्तुता भास्करदर्शनेन ता वासनावात्तिक एव लभ्याः ॥* इससे इस वातिक का महत्व है, तब भी इसमें पारिभाषिक शब्दों का विवेचन सबसे उत्कृष्ट है। गृहीतमातृकाओं का परिचय इस वासना वातिक के सम्पादन काल में मैंने स० सं० वि० वि० सरस्वती भवन की जिन मातृकाओं का उपयोग किया है, उनका विवरण निम्न है १ नं० ३५६३८ ग्रन्थाडू के पत्र १-७५ तथा ३५७६१ ग्र० के पत्र १-१४९ इनकी 'क' संज्ञा से व्यवहार किया है। २ नं०-प्र० सं० &८११६ ग्र० के पत्र १-११८ तथा प्र० सं० ९८२& ग्र० के पत्र १-१२३ इनकी 'ख' संज्ञा । ३ नं०-प्र० सं० ९८७२१ ग्र० के पत्र १-६३, ६५-११७ तथा प्र० सं० ९८११३ ग्र० के पत्र १-१५१ इनका 'ग' संज्ञा से उपयोग किया है। प्रस्तुत संस्करण श्री भास्कराचार्य द्वारा निर्मित वासना भाष्य के साथ सिद्धान्तशिरोमणि के २-३ आदि संस्करण प्रकाशित हुए हैं। किन्तु वासना भाष्य तथा वासना वातिक इन दोनों के साथ आज तक प्रकाशन नहीं हुआ था। यदि पढ़ने की इच्छा रखने वाले विद्वानों को उत्त दोनों टीका एक जगह सुलभ हों तो मणि सुवर्ण संयोग हो जाता, यह इच्छा मेरी अधिक काल से थी। इस समय संस्कृतवाङ्मय के उद्धार के लिए निरन्तर प्रयत्न में तत्पर पंडितों के शिरोमणि सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० बदरीनाथ जी शुक्ल महोदय की तथा सरस्वती भवन ग्रन्थालय के अध्यक्ष श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी जी की कृपा से 'अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रकाशन योजना' में इसका समावेश होने से मेरा `नोरथ पूर्ण हुआ है। इसलिए उत्त दोनों महानुभावों का मैं कृतज्ञ हैं। . सि० शिo 5३६ पृ० ॥