पृष्ठम्:स्फुटचन्द्राप्तिः.djvu/४९

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83. 84. 85 . 86 . 87. 88 . 89 . 90. 91. 92 . 93 . 94 . 95 . 96. 97 . 98 . 99 . 100 . 101. 102. 103 . 104. 105 . कृपणः कौण्डिन्यः लोला दीपशिाखा स्वर्गस्तु प्रार्थनीयः सौम्रात्रं वाधिक स्यात् लीनोऽळीनो* त्रिनेत्र: धिगाहवविकारः शिशिरा वासरश्री : अमिरामा नकली धमर्मोऽर्थः पूर्वरङ्गः मानुजो मिथुनेऽभूत् रौद्रो यमस्यारम्भ धिगाशामशानेऽस्मिन् जनार्दनो नरेशा : मृगाः शूरा वनान्ते चण्डो वै भोजपतिः धीगम्योऽनङ्ग एव धैर्यालय: सन्न्यासी" चन्द्रात्’ तापापनोदः सेव्यो जनैर्मुकुन्दः अभिषवोऽहरहः कायऽनायै*रुपधि:7 मानदेयं मरळी ज्वलनो यजने " नम्यः R 1 2 } * 6 8 10 Bhaga 25 7 19 14 27 10 24 21 5 20 4 18 15 28 12 25 15 18 26 42 48 42 52 17 58 51 55 25 44 1. B. सु (wrong 2. D. लीनोधीनो B. लीनोळिनोश्र नेत्र 4. B.D. सन्न्यासः 3. 5. B.D. चन्द्रः 6. B. नान्यै 7. B. –रधिपतिः (corrupt) ; D. कार्या नार्या रूपधीः 8. D. ज्वलनोऽयं जनैः 1 13 16 46 10 18 10 33 34 27 39 55 40 59 22 39 35 36 39 19 26 17 40 11 34