पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/११७

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प्रकरणं 2 श्लो० ३

है। इस उक्त अर्थ में साक्षात् वेद् वचनों से बतलाये हुये दृष्टांत को ही अब दिखलाते हैं । (मृद् इव घटिकोदंचनादिः विकार:) जैसे मृतिका में ही उत्पन्न होने से मृतिका में स्थित होने से तथा मृतिका में लय होने से घड़ा सकोरे, आदिक कार्य मृतिका से न्यारे नहीं है किन्तु मृतिका रूप ही हैं, वैसे ही जगत् भी ब्रह्म रूप ही है । (सद् भेदे ) इस प्रपंच का यदि ब्रह्म से भेद है तो ( असत्वं स्यात्) इस जगत् को मिथ्या रूपता होगी (अथ ) श्रऔर यदि यह जगत् (सत्) सत् ही है, यह पक्ष मानोंगे (तदा कथंचित् भेदो नास्ति) तो किसी प्रकार भी ब्रह्म से जगत् का भेद नहीं होगा अर्थात् उक्त दोनों पक्षों से जगत् को मिथ्या रूपता ही सिद्ध होती है। सत् पक्ष से वा असत् पक्ष से भिन्न तीसरा पक्ष बन ही नहीं सकता, क्योंकि (भेदाभेदौ विरुद्धौ ) भेद् अभेद एक हा काल म श्रार एक हा वस्तु मम तथा रहना असंभव है क्योकि ये परस्पर विरोधी अर्थात् एकत्र दो विरुद्ध पदार्थो की स्थिति होने पर एक की हानि अवश्य ही हो जाती है। अत: यह तीसरा पक्ष प्रयुक्त है । श्रव (अभिन्नवस्तु प्रतिष्ठा) उक्त प्रकार से जिससे कोई भी वस्तु भिन्न नहीं है उस वस्तु में (भिदा नहि भवति ) प्रतियोगि के प्रभाव होने से भेद नहीं होता इसलिये आत्मत्वरूप ब्रह्म अद्वैत है ।॥३॥

अब ब्रह्म की अभेद् रूपता सिद्ध करने के लिये भेद की असिद्धिं दिखलाते हैं

भेदोऽभिन्ने प्रतीतोभवति खलु मृषा चंद्रनाना

त्मता वद्भिन्नेऽभेदश्च तद्वत् प्रभवति हि ततोन

स्वतो वस्तुभेदः । धर्मेभेदः प्रसिध्येद्यदि भवति