पर भी संबंध शून्य भेद की व्याप्ति नहीं है । भाव यह है, साध्य साधन का नियत सहचार संसर्ग ही व्याप्ति का स्वरूप है। यहां भेद् रूप साध्य संबंध से रहित है, इसलिये भेद् की कहीं पर भी व्याप्ति का ग्रहण नहीं होगा, इसलिये अनुमान प्रमाण का भा भेद् विषय नहीं है। इसी प्रकार संबंध रहित होने से ही भेद उप मान प्रमाण का भी विषय चहीं है, इस तात्पर्य से कहते हैं कि (सदृशी न ) भेद् सदृश नहीं है । भाव यह है, नि: स्वरूप भेद् में किंचित भी सादृश्य संभव नहीं है और उपमिति सादृश्य ज्ञान के आधीच होती है। (वाक्य तात्पर्यदूरा ) भेद अद्वैत रूप वेद तात्पर्य से भी संबंध वाला नहीं है। भाव यह है, भेद् निरुपाख्य होने से ही अर्थात् भावाभाव रूप से भेद का निर्णय न होने से भेद् वेद् रूप शब्द प्रमाण का भी विषय नहीं है । शब्द प्रमाण से भी वस्तुका ही परोक्ष वा अपरोक्ष ज्ञान होता है और भेद कोई वस्तु नहीं है, इस कारण भेद शब्द प्रमाण का भी विषय नहीं है। (मानाभावः) मान नाम उपलब्धि का है, उसके श्रब्रभाव का नाम अनुपलब्धि है, सो अनुपलब्धि (मानंन) प्रमाण ही नहीं है, क्योंकि अभाव रूप होने से अनुपलब्धि को श्रवस्तु रूपता है । (अस्याम् अपरं मानम्) इस भेद में अर्थापत्यादिक कोई और प्रमाण भी ( न च ) नहीं है क्योंकि अर्थापत्यादिक अनुमान के अंतर्गत हैं । (तथापि) इस प्रकार भेद, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द. अनुपलन्धि आदिक प्रमाणों के अविषय होने पर भी (प्रत्यक्ष सा एपा ) सबको अनुभव सिद्ध है ऐसा यह भेद् (स्वाप्नमाया नगरमिव) स्वप्न प्रकटितू नूगर को तरह और मनट की माया से प्रकटित नगर की तरह (मवैव ) मिथ्या ही है। अर्थ यह है कि जो किसी प्रमाणसे तो सिद्ध नहीं हो और प्रतीत हो वह मिथ्या ही होता है, जैसे
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