पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१२९

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प्रकरणं २ श्लो० ९ [ १२१ और भी निमित्तं प्रसिद्ध हैं, इसलिये वह केवल बुद्विरूप निमित्त से ही उत्पन्न नहीं होता । द्वित्व तो वहिभूत दो घंटों में ही यह एक है और यह एक है इस अपेक्षा बुद्धि से उत्पन्न होता है और अनंतर ये दो घट हैं, इस प्रतीति से भेद् वादियोंने द्वित्व स्वीकार किया है। इसलिये मेघों में बुद्धि से कल्पित नगर के समान वह द्वित्व मिथ्या हीं है । भेद् वादियों के मत म ( सः ) सा द्वित्व श्रादि बुद्धि जन्य पदार्थ (भवन् ) उत्पन्न होकर (परेषां गोचरः स्यात्) अन्य पुरुषों को प्रत्यक्ष होगा जैसे घटादि बाह्य सत्य पदार्थ प्रत्यक्ष हैं, परन्तु ऐसे नहीं होता है। इसलिये भी वह द्वित्व केवल कल्पक के ही विषय होने से केवल उसीको बुद्धि की वृत्ति रूप स्वप्न नगर के सदृश मिथ्या ही है। तथा (एकैकं चेत न द्वयंम्) एक एक वस्तु में द्वित्व की प्रतीति न होने से यदि एक एक घट आदिक वस्तु द्वित्व से रहित है तो (उभयम्) घटद्वय द्वित्व विशिष्ट हुआ (इतिमृषा) यह कथन मिथ्या ही दैक्योंकि दो घटों में द्वित्व का अभाव भी विद्यमान है और जिसमें जिसका प्रभाव हो उसमें उसी प्रकार का बोध प्रमाण नहीं होता । तथा (तत् विशिष्ट प्रथा च मृषा ) घटादिकों का द्वित्व युक्त ज्ञान भी अप्रमा ही है और अप्रमा ज्ञान मिथ्या पदार्थ विषय ही होता है। दूसरे, ऐसा मानने से (द्वित्वादेः संकरः स्यात्) द्वित्व, त्रित्व आदि अनेकों का एक आश्रयकत्व रूप संकर प्राप्त होगा और (ते खलु प्रागभावात् व्यवस्था न भवति ) निश्चय ही तेरे मत में प्रागभाव का हेतु मानने से इसकी व्यवस्था नहीं होती । भाव यह है कि सर्वत्रही िद्वत्वादिकों की प्रतीति न होने से और इसमें ही द्वित्वादिकों का प्रागभाव है इस प्रकार निश्चय नहीं होने से तेरे मत में व्यवस्था नहीं है और अपेक्षा बुद्धि से भी तेरे मत में व्यवस्था नहीं हो सकती,