पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१३

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[ ५
प्रकरणं १ श्लो० ३

बारंबार ध्यान करके, शीघ्र ही परमानन्दरूप अमृतधारा का बार बार पान करके अपने गुरु के दोनों धरणकमलों को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ।॥ २ ॥

(जनि मृतिभयम्) जन्म मरणुके भय को (स्मारं स्मारम् ) पुनः पुन: स्मरण करके (जात निर्वेद वृत्तिः) विषयों में दोष दर्शन रूप हेतु से उत्पन्न वैराग्य वृति वाला हुआ और (अन्त निष्णम्) हृदय में उपविष्ट (उमाकान्तम्) श्रीपार्वती प्रिय (पशुपतिम्) जीव रूप पशुओों के स्वामी शिव को (ध्यायंमहान् पाठः ध्यायम्) बारम्बार स्मरण करके अर्थात् हृदय में स्वात्मा से अभिन्न रूप ऐसे शिव को चिन्तन करके (सपदि) शीघ्र ही अर्थात् ध्यान काल में ही (परमानन्द पीयूषधाराम्) परमानन्द रूप अमृत धाराओों को (पायं पायम्) पुनः पुनः पान करके अर्थात् अनुभव करके (निज गुरु पदाम्भोज युग्मं) अपने तत्त्वोपदेष्टा गुरुश्रों के दोनों चरण कमलों को (भूयोभूयः) बारम्बार (नमामि ) मैं नमस्कार करता हूं ।। २ ।।

परम कृपा कर अब जीव ब्रह्म के एकत्व उपदेष्टा सद्गुरुश्रों के प्रति नमस्कार मिष से वस्तु निर्देश रूप मंगलाचरण को आचार्य रवते हैं ।

शार्दूल विक्रीडित छंद ।

यस्माद्विश्वमुदेति यत्र निवसत्यंते यदप्येति
यत् सत्य ज्ञान सुखस्वरूपमवधिद्वैतप्रणाशेोज्झि
तम् । यज्जाग्रत्स्वपनप्रसुप्तिषुविभात्येकं विशोकंपरं
प्रत्यग्ब्रह्मतदस्मियस्य कृपयातंदेशिकेंद्र भजे ॥३॥