पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१३९

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प्रकरण २ श्लो० १४ [ १३१ मोहान्यभावात्सत्यज्ञानादि वाक्य व्यवहृति विषये कल्पिते रूपभेदे। शुक्तीदंतेव सत्ता स्फुरति सम रसाकल्पिते नानुविद्धाशुक्तित्वादीव मायावरण परि भवाचित्सुखत्वेन भातः ॥१४॥ सचिदानन्द स्प आत्मा के एक होने पर भी तथा असत्, जड़, महा दुःखरूप मोह से उसके अन्य होने पर भी सत्य ज्ञानादि वाक्यों के व्यवहार में उसका भेद काल्पत हैं । शुक्ति के ‘यह ’ श्रश के समान सत्ता सामान्य अंश भी कल्पित में व्याप्त होकर भासता है। शुक्ति आदि के समान विशेष अंश अज्ञानकृत श्रावरण से ढका होने से चित् सुख का भान नहीं होता ॥१४॥ (सचित्सौख्यैक रस्येऽपि) रस शब्द का अर्थ यहांश्रात्मा है सत् चित् और और प्रानंद तीनों एकात्मकहोने पर भी (सत्य ज्ञानादि वाक्यव्यहृतिविषये रूप भेदे कल्पिते ) ‘सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म' इत्यादि वाक्यों में बोध्य बोधन रूप व्यवहार विषयक सत्यत्व, ज्ञानत्व और आनन्दत्व ये रूपभेद कल्पित हैं अर्थात् ब्रह्मस्वरूप में सत्य, चित् और प्रानन्द इन तीनों की यद्यपि एकरूपता ही है, तथापि सत्य आदिकों के बोध्य बोधन रूप व्यवहार के अर्थ इनका कल्पित भेद माना गया है, क्योंकि ( अनृत जड़ महा दु:ख मोहान्यभावात्) असत्,जड़, दु:ख रूप मोह से अर्थात् अज्ञान से आत्मा अन्य स्वभाव वाला है । भाव यह है कि सचित् श्रादिक श्रात्मा के अनेक अंश रूप भेद की कल्पना तो श्रतियों ने श्रात्मस्वरूप ब्रह्म में श्रसत जड