पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१४४

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१३६ ] स्वाराज्य सिद्धिं अवकाश नहीं है। जैसे उक्त महावाक्य में तत्त्वंपद एक अभेद् अर्थ वाले हैं वैसे उक्त मृष्टि वाक्य (नाप्यभिन्न पदार्थकत्वम् ) अभिन्न पदार्थ को नहीं लक्ष कराते । अर्थान् जैसे तत्त्वमसि महावाक्य में तनू और त्वं पदों में पदार्थाभेद् बोधक एक विभक्ति है तैसे ही सृष्टि वाक्यों में पदार्थाभेद् बोधक एक विभक्ति नहीं है । (अत: ) इसलिये (पदेषु लक्षणा न ) यद्यपि पदोंमें लक्षणा नहीं हैं, तथापि ( भेदसंगतिकानि तानि ) उक्त सृष्टि वाक्य भेद संबंधसे परस्पर अन्वित हैं और (समेत्य ) श्रभिन्न निमित्त उपादान ग्रूप एक कारण के प्रतिपादन द्वारा एक वाक्यता को प्राप्त होकर ( तत्पराणिहि ) 'उपक्रमोपसंहाराभ्यासोऽपूर्वता फलम् । अर्थवादोपपनी च लिंगंतात्पर्य निर्णये ।।' इस बाक्य प्रमाण से उपक्रम उपसंहारादिक छः प्रकार के लिंगों के अनुसार अद्वैत अर्थ परायण होकर ( सत्य चिद्द्वयम्) सत्, चित् और अद्वय रूप ब्राह्म का (लक्षयेयु:) लक्षणा से बोध करते हैं। तथा इतना कहने से वाक्य में ही लक्षणा का संभव है. पद में नहीं, यह अर्थ कृतबुद्धि अधिकारी जान लें, यह सूचिन्न करने हैं।१७।। _ वेद के सृष्टि वचन पुनः पुनः सृष्टि को ही क्यों कह रहे हैं, इस शंकाके निरासार्थमृष्ट वाक्योंका अत्र तात्पर्य कहा जाता हैं अक्षजादि बहि:प्रमाण समेधित द्वय विभ्रमे जाग्रति श्रुतिरद्वय प्रतिबोधने सहसाऽऽच्क्षमा । व्यावहारिक वस्तु जातमिदं मृषेति विवक्षया प्रक्रियां रचयां बभूव विस्मृष्टिसंहृतिलक्षणाम्।।१८