प्रकरण २ श्लो० २७ [१५१
पूर्व प्रकार से ही श्रवण किये जो जो सृष्टि प्रति
पादक वाक्य समूह हैं उनका प्राक्रया क विचार स, युक्त
और श्रुति से भी उन सबका सत् अद्वैत ब्रह्म में समन्वय
करे । पूर्व कहे तटस्थ लक्षणों का संक्षेप इतना ही है ।
इसके निश्चय के दो फल हैं। एक लक्ष्यभूत ब्रह्मका सत्व है
दूसरा भेद का निवारण है ॥२७॥
( इत्थं एव ) इस पूर्व उक्त प्रकार से ही (ततः ततः) उन
उन उपनिषदों में (श्रुति सृष्टि वाक्य कदंबकम्) जो सृष्टि
प्रतिपाद्क वाक्यों का समूह सुनने में आता है उस सृष्टिवाक्य
समूह को (प्रकियादि अभिशीलनेन ) प्रकरणा क उपक्रम
उपसंहार आदिक विचार द्वारा तथा (युक्तिभिः) पूर्व आचार्यो ।
की कही हुई युक्तियों द्वारा अर्थात् भेद बालगोपाल अंगना
अजापाल पर्यंत सर्व को ही प्रत्यक्ष है अर्थात् ज्ञात है इसलिये
सर्व ज्ञाता भेद् में ही यदि वेद् वचनों के बोध में समन्वय होगा
तो वेद् वचनों को अप्रमाणता ही प्राप्त होगी क्योंकि अबाधित
अज्ञात अर्थ का बोधक वाक्य ही प्रमाण माना जाता है। इत्यादि
रूप पूर्व वेदांताचार्यो द्वारा कही हुई युक्तियों से तथा (श्रुति -
भिश्च) मय्येव सकलं जातं मयि सर्व प्रतिष्ठितम् । मयि सर्व
लयं याति तद्ब्रह्माद्वयमस्म्यहम् ।।' इत्यादि अन्य श्रुतियों से
( सद् अद्वयेन समानयेत्) सत्त और अद्वैत रूप में ही समन्वय
करे अर्थात् सर्व वेदांत वाक्यों का अद्वैत रूप ब्रह्म में ही तात्पर्या
है इस प्रकार से जहां तहाँ श्रुत सृष्टि वाक्यों का समन्वय करे ।
(स तटस्थ लक्षण संग्रहः एषः) पूर्व उक्त तटस्थ लक्षण का
संक्षेप इतना ही है। (तत्फले) इस तटस्थ लक्षण के (खलु )