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प्रकरणं १ श्लो० 32

द्यशास्तस्य बाधादि श्रयोगात् ) सर्व अवस्था के साक्षी रूप श्रात्मा का बाध कहना तथा श्रात्मा को विकारादिक कहना अशक्य हैं, क्योंकि साक्षी का भी यदि बाध होगा तो जगत् में अंधता ही प्राप्त होवेगी और प्रसाक्षिक साक्षी का बाध भी श्रसिद्ध है, अतः आत्मा सत्य है। मुख्य प्रेमास्पदत्वात्) श्रात्मा हा मुख्य प्रेमका विषय है अर्थात् अनन्य अर्थ होने से श्रात्मा परम प्रेमास्पद है, अतः आत्मा सुखरूप है । (उपधि विभिद्या) अज्ञान तथा तत्कार्य देहादिकोंके भेद्से (वस्तुभेदादि असिद्धेः) आत्मरूप वस्तु में भेद तथा अनित्यत्वादिक श्रसिद्ध नहीं हो सकते, इससे श्रात्मा सत्यरूप है । (ब्रह्मांशत्वप्रवादात् ) ‘यथा अग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिंगाः' इत्यादिक श्रुतियों से तथा ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः' इत्यादिक स्मृतियों से तथा ‘नाना व्यपदेशात् इत्यादिक से ' जीवात्मा को ब्रह्म का महाकाश घटाकाश के सदृश अंश कहा है । इससे प्रात्मा सत् चित् आनंद रूप है, क्योंकि आत्मा का ब्रह्मसे भेद नहीं है और ब्रह्म सचिदानंद रूप है । (तनुकरणदृशः) आत्मा शरीर इद्रियादिकों का द्रष्टा है अर्थात् साक्षी है, इससे प्रात्मा चिद् रूप है तथा (स्वप्रकाशरातत्वश्च ) प्रात्मा स्वप्रकाश है, इससे तो स्पष्ट ही आत्मा चिद्रूप है, क्योंकि साक्षी आत्मा जड़वर्ग से भास्य नहीं है।॥३२॥

अब आत्मा की उक्त सत्यरूपता ही दृढ़ करते हैं ।

स्वप्नार्थबध्यमाने रयमपिसह यद् बाध्यमानो

न दृष्टो बाधद्रष्टा स्वयं सन् कथमित्र कलये

दात्मबाधं दृगात्मा |दृग्भेदे यन्न मानं यदपि नच