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प्रकरणं १ श्लो० 34

इंग्दृशेगेचरोपि नच ) यदि द्रष्टा भिन्न माना जावे, तब भी साक्षी श्रात्मा उस अन्य द्रष्टो का विषय नहीं हो सकता क्योंकि दोनों ही द्रष्टा समान स्वभाव वाले हैं और समान स्वभाव वालों का दो प्रदीपों के सदृश विषय वेिषयी भाव नहीं देखने में श्राता । इसलिये अन्य द्रष्टा से भी द्रष्टारूप आत्मा का बाध ग्रहण नहीं हो सकता, अत: आत्मा सत् रूप है । (यचासौ निर्विकार:) यह आत्मा निर्विकार है अर्थात् बालत्व, जाग्रत्व आदिक सर्व धर्मसे रहित है (तत् अयं प्रत्यगात्मा निर वधिः) इसलिये यह प्रत्यगात्मा अपरिच्छिन्न अर्थात् काल आदि कृत परिच्छेद से रहित और (सदात्मा) सत्य स्वरूप है।३३॥

आत्मा की सत्य रूपता कही अब आत्मा की चेतन रूपता दिखलाई जाती है।

यद् बाल्यादिष्ववस्थास्वहमहमिति भात्येकं

रूपो विभिन्नास्वध्यत्वं जाग्रदर्थानिव निजमहसा यञ्च सुतोपि वेति। यचाहंकार मोषेऽप्यपरिमुषित

चित् सुप्ति सौख्यादिसाची द्रष्टदृष्टरलोपे श्रुति राप तदस्सा प्रत्यगात्मा दृगात्मा ||३४||

बाल्यादि अवस्था में ‘मैं हूँ, मैं हूं' इस प्रकार का स्वरूप सर्वदा एकसा ही जानता है। सोया हुश्रा भी जानता है । अहंकार का लय होने पर सुषुप्ति अवस्था में श्रनष्ट चिद् सुखादि का साक्षी है तथा द्रष्टा की द्रष्टि