पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१७५

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[ 167
प्रकरणं १ श्लो० 35

श्रात्मा की ज्ञानरूपता कहीं । श्रव आत्मा का आनन्द रूपता को दिखलाते हैं

यञ्चात्मान्यद् बुवाणं प्रियमिति तव तद्धरोत्स्य

तीति ब्रवीति प्राज्ञेनेक्यं सुषुप्तौ निगदतिच

यदानन्द संविन्मयेन । इच्छा यत्स्वानुकूले त्रिज

गति विदित्वा स्वप्रतीपे जिहासायच स्यां सर्वदेति

स्पृहयति तदस्तो प्रत्यगात्मा सुखात्मा ।३५!!

श्रात्मा से अन्य किसी को प्रिय माने तो वह तुझे रुलावेगा, ऐसा ज्ञानी कहते हैं । सुषुप्ति के आनंद ज्ञान में प्राज्ञ से ईश्वर की एकता के कथन से, तीनों लोकों में अनुकूल पदार्थ में राग और प्रतिकूल में द्वेष से तथा मेरा कभी भी अभाव नहो, ऐसी इच्छा से प्रत्यगात्मा श्रानंद स्वरूप है ॥३५॥

( तत् असौ प्रत्यगात्मा सुरवात्मां ) आगे कहे हुए हेतुओं से प्रत्यक्षरूप यह प्रत्यगान्मा आनंद स्वरूप है । ( यत् च आत्मान्यत् प्रियं इति त्रुवाणं तवत रोत्स्यति इति ब्रवीति ) ह्यात्मा से भिन्न पुत्र आदिकों को यह पुत्रादिक मुझे प्रिय हें इस प्रकार कहने वाले के प्रति ज्ञानी महात्मा कहते हैं। कि श्रात्मा से भिन्न पुत्रादिक पदार्थ अपने वियोग द्वारा तेरे को स्बूब रुदन करवावेंगे, इस प्रकार ‘तदेतन् प्रेयः पुत्रान् प्रेयोवित्ता प्रेयोऽन्यस्मातू सर्वस्मादन्तरंयदयमात्मा । सयोऽन्यमात्मनः प्रियं