कालान्तर में होने वाले रूपांतर की कल्पना भी उचित नहीं
है। (इति द्वयोः अपिहि भाग लक्षणा उचिवता) इसलिये तत्व
और त्वम् दोनों ही पदों में भागत्याग लक्षणा उचित है।॥४१॥
श्रब तत् त्वं इन दोनों पदों में भाग त्याग लक्षणा का
प्रकार दिखलाया जाता है
अपहाय न धर्मनिचयं विरोधिनं तनु बुद्धिः
साचि सदनन्त विद्वनम् । उपलच्य सोऽय
मिति वाक्यवत् ततो घटयेदखंड विषये पद
द्वयम् ||४२||
जैसे ‘वह यह है इस वाक्य से देश काल आदि
विरोधी धर्मो का त्याग कर व्यक्ति का ज्ञान होता है वैसे
त्वंपद से शरीर और बुद्धि के साक्षी का श्रौर तत् प्रद से
सत् चित् अनंत का ज्ञान होता है, पश्चात् लक्षणावृत्ति से
इन दोनों पदों को चिन्मात्र अखंड में घटावें ॥४२॥
(सोऽयं इति वाक्यवत्) जैसे सोयं देवदत्तः इस लौकिक
वाक्य में तत् देश तत् काल तत् नगर तत् सामग्री विशिष्ट
तत् पदार्थ का और एतत् देश एतत् नगर एतत् सामग्री विशिष्ट
इदं पदार्थ का परस्पर प्रतीत हुआ अभेद् विरुद्ध है । इसलिये
तत् और इदं इन दोनों पदार्थो में तत् त्वं देशकाल आदिक
विशेषणों को त्याग करके दोनों पदों से केवल शुद्ध देवदत्त की
व्यक्ति ही लक्षित होती है, और उसीके अनुसार तत् पदं और
इदं इन दोनों पदों का अर्थ किया जाता है, तैसे ही (विरोधिनं
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प्रकरणं १ श्लो० ३