भाव यह है कि किसी ने प्रकृष्ट और निकृष्ट ज्योतीश्रों का समूह
देखकर पूछा कि इनमें चंद्र कौन है। प्रष्टा को इस उक्त प्रश्न
से चंद्र व्यक्ति मात्र ही जानना इष्ट है । इसलिये शुद्ध चंद्र ही
उक्त प्रश्न का विषय है। इस प्रकार उत्तरदाता ने प्रश्न के विषय
का विचार से निर्णय करके उस प्रष्टा की जिज्ञासा की निवृत्ति
अर्थ जिज्ञास्य मात्र के बोधन तात्पर्य से उक्त प्रश्न के उत्तर में
ही 'प्रकृष्टः प्रकाशश्चंद्र:’ इस वाक्य का उपदेश किया है।
इसी प्रकार दाष्टन्त में भी जान लेना ।।४५॥
अबऋग्वेद्गत 'प्रज्ञानं ब्रह्म' इस महा वाक्य का भी उक्त
प्रकार से अखंड अर्थ ही है यह स्पष्ट किया जाता है
वसंत तिलका छन्द् ।
यः प्राग्विस्तृज्य भुवनं तनुमाविवेश यः पंच
भूत सुरमानुषतिर्यगात्मा । येनावलोकयति
वक्त्यभिमन्यते च प्रज्ञान मात्र विभवो ऽहमलो
जिसने सृष्टि के आदि में लोकों को उत्पन्न करके
शरीरों में प्रवेश किया है, जो पंचभूत, देव, मनुष्य, पशु
श्रादि रूप है, जिससे अवलोकन करता है और वाणी से
मात्र का ऐश्वर्यवान मैं हूं ॥४६॥
(य:) जो परमात्मा (प्राक्) सर्ग के आदिमें (भुवनं
विसृज्य) सहित अंगों के सर्व लोकों को उत्पन्न करके (तनुम्
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स्वाराज्य सिद्धिः