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प्रकरण २ श्लो० ४७

आविवेश) शरीर में प्रविष्ट हुआ है, अर्थात् अन्तःकरण श्रवच्छिन्न हुआ है। क्योंकि व्यपक वस्तु रूप ब्रह्माकाश का और कोई प्रतिबिंबादि रूप प्रवेश शब्द का अर्थ संभव नहीं है, (य:) जो परमात्मा (पंचभूतसुरमानुष तिर्यगात्मा ) पंचभूत, देवता, मनुष्य, पशु आदि रूप है। क्योंकि आकाश आदिक पंचवभूत भी ब्रह्म के ही विवर्त हैं, (येन) जिस प्रत्यक् चैतन्य रूप निमित्त मात्र से ( अवलोकयति) चनु इद्रिय से देखने का अभिमान होता है तथा ( वक्ति अभिमन्यते च ) वाक् इद्रिय से वचन बोलने का अभिमान होता है अर्थात् जिस चैतन्य रूप प्रत्यक् आत्मा की सत्ता पाकर इद्रियों और अन्तः करण से दर्शन, वचन आदि तथा अभिमान होते हैं, (असौ परात्मा प्रज्ञान मात्र विभवः अहम्) सो यह परमात्मा स्वरूप ज्ञान मात्र ऐश्वर्यवान् मैं हूं । अर्थात् स्वरूप ज्ञान ऐश्वर्यक परमात्मा से मैं अभिन्न हूं अर्थात् मैं ही परमात्मा हूं ।४६॥
श्रब यजुर्वेद गत अहं ब्रह्मास्मि इस मद्दा वाक्य का भी'अखंड अर्थ ही है यह दिखलाया जाता है
यद्वयाकृतं जगदभूत्तमसा नखाग्राद्यञ्च प्रविष्ट
तनुकृत्स्नमकृत्स्नमासीत् । प्रेयस्तदेव परमं
परमार्थतोऽहं ब्रह्मास्मि तद्विदितवद्धि तदेव
जा माया द्वारा जगत्स्प हुश्रा ह, जा सब स्प हुश्रा भी नख के अग्रभाग तक शेरीरों में प्रविष्ट हुआ है वह }