थे, फिर सुषुप्ति से उत्थान होकर उसी उसी शरीर वाले होते हैं,
क्योंकि सत् श्रात्मा को न जानकर यह जीव सुषुप्ति में सत् को
प्राप्त हुए हैं। इस तात्पर्य से कहते हैं कि (यत् प्रच्युताः पुन:
अमी बहुदुःखभाजः) जिस सत् रूष ब्रह्मसे प्रच्युत हुए अर्थात्
असत् रूप के अनुसंधान युक्त हुए ये जीव बहुत दु:खी होते हैं
अर्थात् कर्म वश पुन: शारीरिक दु:खों को भोगते हैं, (सत् ब्रह्म
तत्त्वमसि ) हे श्वेतकेतो, सो सत् रूप ब्रह्म तू है, (नासि कदापि
दु:खी ) तू दुःखवान् संसारी कदाचित् भी नहीं है। भाव यह
है कि सुषुप्ति में सत् रूपता के प्राप्त होने पर भी अज्ञान का
श्रावरण होने से वहां आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता। जाग्रत
श्रऔर स्वप्न में भी असंख्य अज्ञान काय कां श्रावरण होता
है ।॥५८॥
सत् से च्युत होकर जाग्रत श्रादिकों में मैं सत् से श्राया ।
इस प्रकार से यह जीव क्यों नहीं जानता, इस शंका का समा
धान भी दृष्टांत से ही किया जाता है
अधिर्यथा जलधरेरपनीय नीतो नद्यादि भाव
मुदधित्वमतिं जहौ स्वाम् । एवं भवानुपविभि
खलु विस्मृतः स्वं सद् ब्रह्मा तत्त्वमसि संस्मरं
पूण भावम् ||५१।।
जैसे समुद्र मेघों को भिन्न करके नदी भाव को ग्रांसं.
हुश्रा अपनी समुद्रबुद्धि को त्याग देता है इस प्रकार
शरीरादिक उपाधियों से तू अपने सत्'स्वरूप को भूला
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स्वाराज्य सिद्धिः