हुओं हैं, ‘वहं सत् ब्रह्म तू है’ ऐसे पूर्ण भाव को स्मरण**
कूर ॥५१॥
(यथा) जैसे (अब्धिः) समुद्र को (जलधरैः) मेध
(अपनीय) दूर ले जाकर (नद्यादि भावं नीतः) गंगादि नदीं
भाव को प्राप्त कराते हैं तब वह (स्वां उदधित्वमतिं जहौ )
अपनी समुद्र बुद्धि को त्याग देता है, भाव यह है कि जैसे समुद्र
से प्रथक् हुआ समुद्र का जल 'मैं समुद्र हूं' इस प्रकार अपंने
परमार्थ रूप को स्मरण नहीं करता-(एवं ) तैसे .हीं,
हे श्वेतकेतो, (भवान् उपधि भिः स्वविस्मृतः खलु) तू
शरीरादिक उपाधियों से निज सत्स्वरूप की विस्मृतिं वाले
हुआ है, इस कारण अपने सत्त रूप को स्मरण नहीं करता
है, (सत् ब्रह्म तत्त्वमसि ) सो सतं रूप ब्रह्म तू ही है ( संस्मर
पूर्ण'भावम्) तू अपने परिपूर्ण सत् रूप को स्मरण करं । भाँव
यह है कि समुद्र समुद्रावस्था में भी समुद्र ही है और मेघों के
व्यापार नदी आदि भाव को प्राप्त हुआ भी समुद्र ही है अर्थात्
सो समुद्र नदी भाव को प्राप्त हुआ अपने समुद्र भाव का स्मरण
करे तब भी समुद्र ही है और नहीं स्मरण करे तब भी समुंद्र हीं
है। तैसे ही यह जीव भी अज्ञान के कारण सत् से वियुक्त होकर
अर्थात् जाग्रत श्रादि दृशा को प्राप्त होकर अपने को सन् रूप
स्मरण करे तो भी सत् रूप ही है और न स्मरण करे तो भी संत्
रूप ही है। इसलिये सो सत् रूप ब्रह्म तू है इस प्रकार मुझसे
श्रवण करके वह परिपूर्ण ब्रह्म में ही हूँ ऐसा स्मरण कर अर्थात्
निश्चय कर ॥५१॥
जीवों की अग्नि विस्फुलिंगादि दृष्टान्त से सत् से ही उत्पत्ति
होती है तथा खत्में सुषुप्ति में लय बतलाया है । इसलिये जैसे
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