पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२२

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

१४ ] स्वाराज्य सिद्धि मिलकर (मुक्तौ ) मुक्तिर्मे (साधनम्) साधन है, इस प्रकार ( संगिरन्ते ) कहते हैं । ( अन्येतु ) उक्त भर्तृ प्रपंच आदिकों के अतिरिक्त एक देशी जिनका निर्देश पहले हुआ है, (ज्ञान कर्मोभयम्) ज्ञान और कर्म दोनों मुक्ति में साधन हैं (इति ) इस प्रकार कथन करते हैं। अब इन उक्त मतों की प्र माणिकता कही जाती है। (स्वाभि:) अपनी ही (मतिभिः) बुद्धी से ये सब उक्त श्राचार्य वेद के अर्थ की (उत्प्रेक्षमाणाः) कल्पना करते हैं, तत्व वेताओं के दिखलाये हुए मार्ग से नहीं। इसलिये (ज्ञानादेव) ‘ज्ञानादेवतु कैवल्यम्’ ज्ञान से ही देह राहित्य रूप कैवल्य मोक्ष होता है ( इति वाक्यात्) इस वाक्य रूप प्रबल प्रमाण से (इह)मुक्ति साधन के विचार में (वयम्) हमलोग (सहसा ) शीघ्र ही ( तान् ) उन उक्त आचार्यो के कल्पना-प्रपंचों को ( न अनुमन्यामहे) अंगीकार नहीं करते । भाव यह है कि कर्म अज्ञान जन्य है और सम्यकज्ञान अज्ञान का विरोधी है, इसलिये भी कम से मुक्ति नहीं हासकता कम का फल चार प्रकार का देखा गया है जैसे कुलाल की क्रियाका फल घटा दिक है, पुरुष की गमन क्रिया का फल प्राप्य प्रामादिक है, वरुन्न की प्रक्षालन क्रिया का फल मलकी निवृत्तिरूप संस्कार के योग्य वस्रादिक संस्कार्य है और पाक क्रिया का फल अन्य रूप की प्राप्ति वाले अन्नादिक विकार्य है। मोक्ष उत्पाद्य नहीं क्योंकि नित्य आत्म स्वरूप मोक्ष है, प्राप्यभी नहीं क्योंकि अपना स्वरूप होने से नित्य प्राप्त है, संस्कार्य भी नहीं क्योंकि नित्य शुद्ध आत्म स्वरूप ही मोक्ष है। विकार्य भी नहीं क्योंकि एकरस रूपांतर रहित श्रात्मस्वरूप मोक्ष है । कर्म उपासना मिलित पद्ध भी उक्त युक्ति से ही असंभव है और ज्ञान कर्मो का सम