स्वाराज्य सिद्धि दृःस्व, इच्छा, प्रयत्न श्रादि का इन्द्रियवेद्यत्व वेदांत रहस्यवेत्ताओं का मंमत नवा है । सुख दुःख इच्छा प्रयन्न आदिक मन का धर्म होने से वेदांती इनको साक्षीवेद्य अर्थात् साक्षीभास्य मानते हैं । भाव यह है कि यदि इन्द्रिय जन्य ज्ञान ही प्रत्यक्ष मानें तो सुख दु:ख आदि का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होना चाहिये । इससे तुम्हारे उक्त नियम का यहां व्यभिचार सिद्ध होता है। (तिमरप्रसुप्तिः विषयेषु श्रदर्शनात्) अंधकार में तथा स्वप्न के पदार्थो में इन्द्रियं वेदाता नहीं है । भाव यह है कि अंधकार को यदि भाव पदार्थ मानोगे तो भी नेत्रों से अंधकार का ज्ञान नहीं होगा, क्योंकि श्रअंधकार के ज्ञान करने में नेत्रों को सहकारी प्रकाश का प्रभाव है और श्रालोक सहकृतचतु से ही भाव पदार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । यदि अंधकार को श्रभाव रूप मानोगे अर्थात् प्रकाशा भाव का नाम ही अंधकार है, इससे अंधकार अभाव रूप है ऐसा मनोगे तो भी नेत्रों द्वारा श्रअंधकार का ज्ञान नहीं होगा, क्योंकि श्रभाव के माथ इन्द्रिय का संनिकर्ष यानी संबंध ही नहीं हो मकता है । इस प्रकार मे श्रधकार के प्रत्यक्ष में भी तुम्हारे उक्त नियम का व्यभिचार है । स्वप्नमें सब इन्द्रियों का लय हो जाता है इमन्निये स्वप्र के पदार्थो के प्रत्यक्ष में भी तुम्हारे उक्त नियम का व्यभिचार है तथा (श्रस्य विपयस्य योग्यता अपि हेतुः) इस श्रपरोक्ष ज्ञान के विपय की योग्यता भी हेतु है अर्थात् योग्य विपय का ही प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसलिये गुरुत्व आदि सत् होने पर उस रूप के सत्रश नेत्रां से प्रत्यक्ष नहीं होता है।॥४॥ यद्यपि जैसे प्रत्यगात्मा श्रपरोक्ष है तैसे ब्रह्म अपरोक्ष नहीं है, क्योंकि में ब्रह्म को नहीं जानता हूँ इस प्रकार सर्व पुरुषों को ब्रह्म विषयक ही अज्ञान अनुभव सिद्ध है, तथापि मद्दा वाक्य से
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