पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२४३

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_ _ _ ______ _ _ ___ __ _ __ _ _ _ प्रकरण ३ श्लो० १८ _______ _______ _ _ ___ _ _ _ _ _ __ _ _ _ [ २३५ - कल्पित चोर के बाध होनेपर भी भय तथा कप और वस्र के जल जाने पर भी उसकी आकृति दीखती है, तैसे ही अज्ञान के बाध होनेपर भी विश्व ज्ञानी के देहपात पर्यंत प्रारब्ध भोग को देने में समर्थ होता है ॥१७॥ (चोरबाधेपि) स्थाणु में मिथ्या प्रतीत हुए चोर के बाध होने पर भी ( तत् जन्यभीति श्रादि वत्) जैसे उस चोर जन्य भय कंप आदिक किंचित् काल बने रहते हैं और (चेलदाहेऽपि चेलाकृतिभस्म इव) जैसे वस्र के दग्ध होने पर भी किंचित्काल वस्र के आकार का दग्ध वस्त्र का भस्म प्रतीत होता है, (स्वतः बाधितत्वेपि) तैसे ही स्वत: सर्व जगत् के बाध होने पर भी (ज्ञानिनां आदेहपातम्) ज्ञानीयों के देहपतन पर्यंत (विश्वम्) यह जगत् भी (प्रारब्ध भोग क्षमम्) देहआदिकों में प्रारब्ध संपादित भोग देने को समर्थ प्रतीत होता है ।॥१७॥ शंका-ब्रह्मवेत्ता के अहंता ममता रूप श्रध्यास का अभाव है इसलिये ब्रह्म वेत्ताको भोग कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । इसलिये विश्व की स्थित ज्ञानी के लिये तो अजागल स्तन वत् निरर्थक है । इस शंका का परिहारं इष्टापति से किया जाता है। जीवतोऽप्यस्य न ह्यात्म बुद्धिस्तनौ वामलूरेऽ प्यहेर्निल्र्वयिन्यामिव । मोहमात्रात परे कल्पयं त्यस्य चेद्ध देहितामस्तु तद्धानिरस्येह