प्रकरण ३ श्लो० १९ [ २३७ कारी भवेदात्मभूतो यतिस्त्वेष तेषामपि ॥१९॥ सर्व देवता तथा असुर आदि भी प्रयत्न करके ब्रह्मवेत्ता का आहित करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि अपने श्रात्मा Fा अनिष्ठ कौन करेगा ? और यह देवतादिक का भी प्रात्मा हें ॥१९॥ (ज्ञात तत्त्वस्य) ब्रह्मवेत्ता के ( अभूतये) अहित के लिये प्रथात् सर्वात्मक ब्रह्मभाव प्राप्ति के निराकरण पूर्वक किसी न्मांतर रूप अनर्थ के लिये (सर्वे देवासुराः) सर्व देवता असुर वा मनुष्य (यत्नवन्तोऽपि ) यत्न करें तो भी (न शते) समर्थनहीं हैं, (हि) क्योंकि (श्रात्मनः) अपने आपको अनिष्टकारी) अनर्थ करने वाला (कः भवेत्) कौन होता ! श्रथर्थात् कोई भी नहीं होता (एष यतिस्तु) और यह सफल मात्मज्ञानवाला विद्वान् तो (तेषामपि) उन देवताओं और असुरों का भी (श्रात्मभूतः ), श्रात्मा है इसलिये उसका कोई अनिष्ट [हीं कर सकता । तस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशते । आत्मा येषा' स भवति' इस श्रुति का अर्थ यहां चिंतन करना वाहिये ॥१९॥ राग आदिक दोषों के प्रभाव से यह विद्वान् किसी का प्रनिष्ट नहीं करता अतएव इसकोभी कोई अनिष्ट नहीं करता इस [ात्पर्य से कहते हैं राग लोभ प्रमादादिदोष क्षयान्नायमासज्जते दुश्चरित्रे कवित् । साधुवत्साधु चारियरक्षापर साधुमार्गेण संस्कारतो वर्तते ॥२०॥
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