पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२४८

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२४० ] स्वाराज्य सिद्धि (केपि) कोई श्रीरामोपदेष्टागुरुतमगुरु श्रीवसिष्ठ आदिक ब्रह्मावेत्ता (वणश्रमाचारनिष्ठापरा: ) स्ववर्ण आश्रम के श्राचार में ही तत्पर हैं, (चापरे) और दूसरे कोई जड़ भरत आदिक ब्रह्म निष्ठ (मुग्धबाल प्रमत्तोपमाः) श्रज्ञानियों, बालकों, तथा ग्रहग्रस्त प्रमत्तों के समान रहते हैं, (च इतरे रागिणो भोगिनः) दूसरे कोई सौभरि श्रादिक ब्रह्मवेता भोगों के भोगने में तत्पर से रहते हैं, (योगिन:) और दूसरे कोई जैगीषव्य आदिक ब्रह्मवेत्ता श्रष्टांग योग से समांधि में ही रहते हैं। इस प्रकार प्रारब्ध कर्म की विचित्रता से (ज्ञानिनां एक रूपा स्थित न लक्ष्यते) झानिश्रों की स्थिति अर्थात् श्राचवरणमर्यादा एक रूप नहीं दिखाई देती ॥२२॥ प्रायः विद्वानों की चय जानी नहीं जाती, अब इस अर्थ को ही दृष्टांत पूर्वक बतलाते हैं शार्दूल विक्रीडित छन्द । स्वानंदे सहजे सदा विहरतां स्वच्छंदलीला जुषां निःसंगा च निरर्गलाच जगतां कल्याण संदोहिनी । मत्स्यानां सलिलेऽबरे च वयस्सां वायोरिवाशामुखे दुर्लच्ये पथियोगिनां बहुविधा गृढा विचित्रा गतिः ।।२३।। स्वभाविक श्रानन्द में हमेशा विचरते हुए स्वेच्छा से लीळा करने वाले योगियों की, संग राहित, प्रातिबंध रहित, जद्ध में मछलियों के समान, प्राकाशा में पवियों के समान